SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( सिरि भूवलय है। परन्तु रचना को यह नाम कैसे आया? कवि के स्वस्थल कोलार जिले के चिक्क बल्लापुर ताल्लुक नंदी दुर्ग के समीप यलवळ्ळी (यलव हळ्ळि) सूचित होने के कारण कुमुदेन्दु शतक में यलवभू कुमुदेन्दु राजवद्राजतेजम (पृ. ४४) ऐसा कथन होने के कारण विलोम वाचन के कारण यलवभू शब्द भूवलय बना यह एक प्रकार के चमत्कार का अवसर तो देता है परन्तु यह नाम कृति नाम कैसे होगा? इसकी एक संभावित कल्पना की जा सकती है। प्राचीन कन्नड जैन साहित्य में षटटखंडभूमंडल/क्षिति महीमंडल आदि कथन बार-बार आते हैं। क्या षट्टखंड का अर्थ भूवलय ही है? क्या यह एक प्रादेशिक शब्द है? परन्तु कुमुदेन्दु का स्थान, क्षुद्रक बंध, बंध स्वामित्व, वेदना, वर्गणा और महाबंध नाम के विभागों से षटखंडागम नाम के सिद्धांत ग्रंथ के वस्तु सार को लेकर अपना ग्रंथ रचने के कारण 'षट्टखंड' के लिए शाब्दिक साम्य वाला 'भूवलय' शब्द का प्रयोग किया होगा। यह भी एक प्रकार का चमत्कार ही है। उनके मन में ऐसा विचार रहा होगा ऐसा संभव है जो आगे के श्लोक से ज्ञात होता है भूतबल्याचार्यनवन भूवलय। ख्यातिय वैभव भद्रा।। नूतन प्राक्तनवेरडर संघिय। ख्यातिय सारुव सूत्र॥ ९-२२८) यहाँ भूइ त बलि का कर्त्ता भाग ही अधिक होने के कारण घट्टखंडागम प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से इंगित हुआ होगा। वास्तव में उस सिद्धांत ग्रंथ का महात्म्य का प्रचार करने के लिए, कीर्ति बढाने के लिए सिरि भूवलय का आविर्भाव हुआ होगा। सिरि भूवलय का सामन्य स्वरूप प्रशस्ति . कुमदेन्दु विरचित सिरिभूवलय ५६ अध्यायों का एक जैन सिद्धांत ग्रंथ है। ग्रंथ होने पर भी यह एक परिचित रीति का ग्रंथ नहीं है अर्थात किसी एक भाषा की वर्णमाला के वर्गों का प्रयोग कर तैयार किए गए शब्दों से लिपि बध्द रूप का गद्य-पद्य निबध्द ग्रंथ नहीं है। गणित में प्रयोग किए जाने वाले संख्या लिपियों को अर्थात मात्र अंकों का प्रयोग कर तैयार किया गया ग्रंथ है। इन अंकों को अक्षरों के स्थान पर उनके प्रतिनिधि तथा प्रतिरूप के रूप में उपयोग करना ही 119
SR No.023254
Book TitleSiri Bhuvalay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSwarna Jyoti
PublisherPustak Shakti Prakashan
Publication Year2007
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy