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________________ 1/10 Budha-Sridhara acceds to the request to compose Pāsaņāha-cariu. तेण जि ण पयट्टइ कव्व-सत्ति जं जोडमि तं तुट्टइ टसत्ति।। पुणु-पुणु वि भणिउ सो तेण वप्प घरि-घरि ण होति जइ खल सदप्प।। ता लइवि दोस णिम्मलमणाहँ को वित्थरंतु जसु सज्जणाहँ।। जइ होंतु ण तमु महि मलिणवंतु ता किं सहंतु ससि उग्गमंतु ।। जइ होंति ण दह संपत्त खोह ता किं लहंति मयरहर ससोह।। तं सुणिवि हणिवि दुज्जण-पहुत्तु मण्णिवि णट्टल भासिउ बहुत्तु ।। पुणु स-मणि वियप्पिवि सद्दधाम सच्छंदु वि सालंकारु णामु।। णउ मुणमि किंपि कह करमि कब्बू पडिहासइ महु संसउ जि सव्वु ।। लइ किं अणेण महु चिंतणेण अहणिसु संताविय णियमणेण।। जइ वाएसरि-पय पंकयाहँ महु अत्थि भत्ति णिप्पंकयाहँ।। तो देउ,देवि महु दिव्व-वाणि सद्दत्थ-जुत्त-पय-रयण-खाणि।। तो पत्त सरासइ-वरु-भणेइ को पासचरित्तहो गुणु गणेइ।। घत्ता- णियतमु णिण्णासमि तहवि पयासमि जह जाणिउ गुण सेणियहो। भासिउ जिणवीरहो जिय सरवीरहो गोतम गणिणा सेणियहो।। 10।। 10 1/10 बुध श्रीधर द्वारा ग्रन्थ-प्रणयन की प्रतिज्ञा—“उन दुर्जनों के भय से मेरी काव्य-शक्ति प्रवर्तित नहीं हो पाती क्योंकि मैं जब उसे जोड़ता हूँ, तब वह (शक्ति) टस-टसाकर शीघ्र ही टूट जाती है।" कवि की यह विवशता सुनकर नट्टल साहू ने उसे बार-बार (समझाते हुए) कहा- “हे बप्प, यदि अहंकारी खल (दुर्जन) घर-घर में न होते, तब निर्मल मन वाले सज्जनों के दोषों का अपहरण कर उनके यश का विस्तार कौन करता? यदि पृथिवी को मलिन करने वाला अन्धकार न होता, तो क्या उगता हुआ शशि-चन्द्र सुशोभित हो पाता? यदि सरोवर क्षुद्रता को प्राप्त न होता तो क्या मकरगृह-समुद्र शोभा को प्राप्त हो पाता?" साहू नट्टल ने (जब पुनः) अनेक प्रकार से समझाया तब कवि ने उसे सुनकर तथा (उनका कथन) मानकर दुर्जनों के प्रभुत्व सम्बन्धी भय को मन से निकाल दिया तथा वह अपने मन में विकल्प करने लगा कि-'मैंने शब्द-धाम (व्याकरण) का अध्ययन तो किया ही नहीं, छन्द एवं अलंकार का भी मनन नहीं किया। अतः मैं काव्य-रचना कैसे करूँ? मेरे कथन (मेरी काव्य-रचना) पर यद्यपि सभी लोग संशय करेंगे और विशेष रूप से दुर्जन-जन हँसेंगे, तो भी, जब मैंने (काव्य-प्रणयन सम्बन्धी-) उस कार्य को स्वीकार कर ही लिया है, तब अपने मन को अहर्निश सन्तापित करनेवाले इस मेरे चिन्तन से क्या लाभ? यदि वागेश्वरी-सरस्वती के निर्दोष पाद-पद्मों के प्रति मेरी भक्ति है, तब हे देवि, शब्दार्थ से युक्त पद रूपी रत्नों की खानि-स्वरूप दिव्यवाणि मुझे प्रदान करो। यद्यपि उस पार्श्व के चरित के गुणों की गणना कोई नहीं कर सकता फिर भी, मैं देवि-सरस्वती का वरदान प्राप्तकर उसका कथन करता हूँ।" घत्ता- “कामदेव को जीतने वाले तथा गुणों की (अखण्ड-) श्रेणी वाले वीर-जिन ने पार्श्वचरित को जिस प्रकार गौतम गणधर को बतलाया, तथा गौतम गणधर ने भी जिस प्रकार (मगध सम्राट-) श्रेणिक को बतलाया, उसीके अनुसार उसे प्रकाशित कर अपने अज्ञानान्धकार को नष्ट करता हूँ।” (10) 12 :: पासणाहचरिउ
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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