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________________ इन तथ्यों के आलोक में विचार करें तो यह स्पष्ट विदित होता है कि दिल्ली नगर की स्थापना सन् 734 से 782 के मध्य कभी हुई होगी और उसमें क्रमशः अनेक क्षत्रिय राजाओं ने शासन किया। बुध श्रीधर ने दिल्ली के जिस राजा अनंगपाल की चर्चा की है, वह तोमर राजवंश का तृतीय अनंगपाल था, जो उस समय ढिल्ली का शासक था। नट्टल के आश्रय में रहकर बुध श्रीधर ने अपना पासणाहचरिउ उसी के शासनकाल में अर्थात् वि.सं. 1189 (1132 ई.) में लिखकर समाप्त किया था। दुर्दम वीर हम्मीर को पराजित करने के उपलक्ष्य में इसी अनंगपाल तृतीय को सम्भवतः त्रिभुवपति, त्रिभुवनपालदेव एंव विजयपालदेव जैसे विरुदों से सम्मानित भी किया गया होगा। इसी विजय के उपलक्ष्य में दिल्ली में एक कीर्तिस्तम्भ' का भी निर्माण कराया गया था, जिसका संकेत पासणाचरिउ की प्रशस्ति में भी मिलता है। - .. पृथिवीराजरासो एवं इन्द्रप्रस्थ-प्रबंध में दिल्ली विषयक कुछ महत्वपूर्ण भविष्यवाणियाँ: पूर्वोक्त इन्द्रप्रस्थ-प्रबन्ध में तोमरवंशी राजा अनंगपाल (प्रथम) के वर्णन-प्रसंग में किल्ली-दिल्ली की एक कथा भी वर्णित है, जिसमें भविष्यवाणी की गई है कि दिल्ली पर मुसलमानों के बाद राइवंश, तत्पश्चात् सीसौदिया और पुनः मुसलमानों का राज्य होगा | चन्दवरदाई कृत पृथिवीराजरासो में भी इसी प्रकार की भविष्यवाणी उपलब्ध होती है। यथा अनंगपाल छक्क बैबुद्धि जोइसी-उक्किल्लिय। भयौ तूंअर मतिहीन करि किल्लिय तें ढिल्लिय।। कहै व्यास जग-ज्योति आगम आगम हौं जानौं। तूंअर ते चहुआन अंत वै, तुरकानौ।। अर्थात् हे तोमर नरेश, तूने मूर्खतावश किल्ली हिलाकर उसे दिल्ली कर दी है। इसका परिणाम यही जान पड़ता है कि तोमरों का राज्य चौहान पावेंगे और फिर अन्त में यहाँ तुर्कों का राज्य होगा। ___ पूर्वोक्त किल्ली-ढिल्ली के प्रसंग में इन्द्रप्रस्थ-प्रबन्ध (1/68-92) के अनुसार नगर की स्थापना के लिए व्यास ने अनंगपाल (प्रथम) को चिरकाल तक राज्य करने हेतु निर्धारित भूखण्ड में एक किल्ली (स्तम्भ) गाड़ने को कहा। अनंगपाल ने उसे भूखण्ड में इतना गहरा ठोक दिया कि वह शेषनाग के शीर्ष में जा गढ़ी। व्यास ने इस प्रक्रिया को उत्तम कहा और उसने उस स्थल (नगर) का नाम 'किल्ली' रख दिया तथा अनंगपाल को बताया कि अब किल्ली पर तुम आजीवन राज्य करते रहोगे। किन्तु कुछ ही समय बाद उस अनंगपाल (प्रथम) ने जिज्ञासावश उस किल्ली को उखाड़ कर देखा, तो उसका अन्तिम भाग रक्तरंजित था। जब उसने वह किल्ली पुनः ठोकना चाही, तो वह ठीक तरह से न ठुक सकी। वह ढीली ही रह गयी। चन्दवरदाई के अनुसार वस्तुतः अनंगपाल (प्रथम) की बुद्धि ही भ्रष्ट हो गई थी। अतः उसके इस दुष्कृत्य के कारण ही वह किल्ली-नगरी ही दिल्ली-नगरी के रूप में प्रसिद्ध हुई। मध्यकालीन साहित्य में दिल्ली विषयक प्रचुर उल्लेख पूर्वोक्त इन्द्रप्रस्थ-प्रबन्ध में विविध प्रसंगों में दिल्ली (1/90/5/82) ढिल्लीपति (8/9), ढिल्यां (1/89/11/5/11/9) ढिल्लीपुरे (11/10) जैसे उल्लेख ही मिलते हैं। कहीं भी उसे दिल्ली नहीं कहा गया। 1. 2. 3. दे. दिल्ली के तोमर, पृ. 1990 पासणाहचरिउ, 1/3/1 इन्द्रप्रस्थ-प्रबन्ध 4/68-92 दे. सम्राट पथिवीराज, प. 119 (कलकत्ता, 1950) 40 :: पासणाहचरिउ
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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