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________________ 11/23 Eleven stages from House-holder to asceticism. Characteristics of Madhyama and Jaghanya Pātras. जो ससियर-सम सदंसणिल्लु परिहरिय परिग्गहु वय-समिल्लु ।। सामाइय विरयण चित्त-वित्ति सच्चेयण भोयण कय णिवित्ति।। उज्झिय असेस तिय भोय भाउ तियरणहिँ विवज्जिय दिण-विवाउ।। मंदीकय सयलिंदिय पवित्ति ण करइ आरंभहो तणिय वित्ति।। वय-संयम-सील-सउच्च धारि उववास विहाणहिँ पावहारि।। ण करइ अणुमइ सावज्ज-कम्मि उद्दिट्ठासणु ण गिण्हइँ सहम्मि।। सो मज्झिम पत्त भणिउ जिणेहिँ जो भूसिउ अणुवय-भूसणेहिँ।। वच्छल्ल-पहावण करण-चित्तु सदसण वर सलिलेण सित्तु।। जर-जम्म-मरण-दुक्खोह-भीरु करुणाहरणालंकिउ सरीररु।। अहणिसु णिंदण-गरहण-पवीणु जिण-तच्च-वियारणु वयहिँ हीणु।। एरिसु दरिसिय वियसंत वत्तु जंपिउ जिणवरहिँ जहण्णु पत्तु।। घत्ता- जो कु-समयवासिउ वण-विणिवासिउ चरइ चरणु अइदुच्चरु। पिय-पुत्त परम्मुहु संजम-सम्मुहु सील-सहिउ गय-मच्छरु ।। 207 || 11/23 ग्यारह प्रतिमाएँ एवं मध्यम एवं जघन्य पात्रों के लक्षण(1) जो चन्द्रकिरण समान निर्मल सम्यग्दर्शन युक्त है, (2) जो परिग्रहत्याग आदि व्रतों का धारी है, (3) जिसकी त वत्ति नित्य प्रति सामायिक करने की है. (4) जिसने सचेतन भोजन से निवत्ति ले ली है, (5) जिसने स्त्रियों के समस्त प्रकार के भोग-भावों को छोड़ दिया है, (6) जो मन, वचन काय रूप त्रिकरणों से दिवा-मैथुन का त्यागी है, (7) जिसने अपनी समस्त इन्द्रियों की प्रवृत्ति को मन्द कर दिया है, (8) आरम्भ से होने वाली वृत्ति (आजीविका) नहीं करता, (७) जो व्रत, संयम, शील एवं शौचधर्म का धारी होकर उपवास-क्रिया से पापों को नष्ट करता है, (10) जो सावद्य-कर्मों के लिये अपनी अनुमति नहीं देता, और (11) अपने घर में जो उद्दिष्ट भोजन ग्रहण नहीं करता। इस प्रकार इन ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करने वाला अणुव्रतों रूपी आभूषणों से जो विभूषित है, जिनेन्द्र ने उसे मध्यम कोटि का पात्र कहा है। वात्सल्य एवं प्रभावना करने में जिसका चित्त लगा रहता है, जो सम्यग्दर्शन रूपी उत्तम जल से सिक्त है, जो जन्म, जरा एवं मरण रूप दुख-समूहों से डरता है, जो करुणा के आभरण से अलंकृत शरीर वाला है, अहर्निश निन्दागर्दा में प्रवीण है, जिनेन्द्र कथित तत्वों का विचार करता रहता है, किन्तु व्रत-पालन में हीन रहता है और जिसका मुख सदा विकसित दिखाई देता है, वह नर-नारी जिनवरों द्वारा जघन्य पात्र कहा गया है घत्ता- जो कुसमय में भी वासना से युक्त है, जो वनवासी है, अति दुश्चर-चरित्र का आचरण करता है, प्रिया पुत्र के मोह से परांगमुख है, संयम के सम्मुख तथा शील युक्त है और मत्सर रहित है- || 207 || पासणाहचरिउ :: 239
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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