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________________ 5 10 घत्ता एयारहवीं संधी 11/1 Lord Parswa arrives at Vāṇārasī town. घत्ता- भवियण कमलायरु गुणरयणायरु वियसाविवि जिणदिणयरु । वाणारसि णरिहिँ पीणिय खयरिहिँ गयउ पासु केवलधरु ।। छ।। हयसेणहो वणवालेण ताम ।। हँ हँ उविह वि देव ।। णियतणुरुह सररुहु संमुहु सरंतु ।। गंजोल्लिय मणु उद्धसिय रोमु ।। णिवसइ सामरु तित्थयरु जेत्थु ।। हयसेणु पत्तु जय-जय वालु ।। यि सुय समीउ भिंगारु लेवि । । पुव्वुत्त- कम्म विद्धंसणेण । । बिण्णिवि सलहिय तं सुरवरेण । । के होंति महीयलि तुल्ल ताहँ ।। णंदणवणे आवासियउ जाम वज्जरिउ पासु आइयउ देव तं सुणिवि वयणु उट्टिउ तुरंतु हरिसंसु जलोल्लिय वयण- पोमु जंपंतु सपरियणु जाहु तेत्थु च्छुडु परियणेण सहुँ पुहविपालु ता तुरिय समाग वम्मदेवि गय पास-पास जिण दंसणेण बिण्णिवि आणदिय नियमणेण तित्थयरु तणुरुहु होइ जाहँ घत्ता - जिणपय पणवेष्पिणु मणि भावेप्पिणु थोत्तु करिवि णियकोट्ठइ | उवविट्ठउ तुट्ठउ विहुणिय दुट्ठउ णिउ हयसेणु विसिट्ठइ ।। 185 ।। 11/1 प्रभु विहार करते-करते वाणारसी पहुँचते हैं गुणों के सागर, केवलज्ञान के धारी तथा भव्यजन रूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य के समान, जिनेन्द्र पार्श्व प्रभु विहार करते-करते विद्याधरों को सन्तृप्त करने वाली वाणारसी नगरी में पहुँचे । । छ । वहाँ जाकर जब वे वहाँ के नन्दन-वन में ठहरे, तभी वनपाल ने राजा हयसेन से निवेदन किया कि हे देव, पार्श्वप्रभु यहाँ पधारे हैं, जिनके चरणों में चारों प्रकार के देव अपने मस्तक झुकाते हैं। वनपाल का निवेदन सुनकर राजा तुरंत ही उठा, कामदेव के समान अपने पुत्र (पार्श्व) के मुख-कमल का स्मरण करने लगा। उस समय उसका (राजा का) मुखकमल हर्षाश्रुओं के जल से भींगा जा रहा था, शरीर रोमांचित हो रहा था, और हर्षातिरेक से उसका कण्ठ अवरुद्ध हो रहा था । बोलते-बोलते परिजनों सहित वह राजा उस ओर 'चला, जहाँ देवों सहित तीर्थंकर देव विराजे हुए थे I परिजनों सहित राजा हयसेन जय-जयकार की सुन्दर ध्वनि करता हुआ शीघ्र ही उनके सम्मुख जा पहुँचा । तभी माता वामादेवी भी तुरन्त ही अपने लाड़ले पुत्र के समीप भृंगार लेकर पहुँची। उन्हें उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों जिनेन्द्र पार्श्व के दर्शन से पूर्व संचित कर्मों के विध्वंस होने के कारण संसार का पाश ही नष्ट हो रहा हो। माता-पिता दोनों ही निज मन से आनन्दित हो उठे। सुरेश्वर ने उन दोनों की प्रशंसा की और कहा कि, जिन माता-पिता के तीर्थंकर जैसे पुत्र हों, महीतल में उनके तुल्य (सौभाग्यशाली ) और कौन हो सकता है ? घत्ता- राजा हयसेन जिनेन्द्र - पदों को प्रणाम कर मन में उनके गुणों का ध्यान कर स्तोत्र - विनती पढ़कर सन्तुष्ट हुआ। अपने समस्त दुष्ट शत्रुओं को नष्ट कर देने वाला वह (पिता) राजा हयसेन अपने (लिये निर्धारित) कक्ष में जाकर बैठ गया ।। 185 ।। पासणाहचरिउ :: 217
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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