SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 10/13 The preachings on renunciation. धम्मोवरि कीरइ स-मइ तेण बिणु धम्म होइ न सोक्खु जेण।। गेहंतरि थिरु थाहरइ दव्यु तंबोलु-विहूसणु-वसणु सब्बु ।। सहि-सयण-पियर गच्छंति ताम दुम्मण रोवंत मसाणु जाम।। इक्कु जि परदिण्ण परत्त सम्मु णिबूढ सहेज्जउ होइ धम्मु।। धम्मु जि पिय पियरइँ धम्मु-मित्तु धम्मु जि सुरतरु वरु धम्मु वित्तु।। संझारायं पिव बंधु लोउ सुरराय-चाप-संकास-भोउ।। सरयामलघण समु जीवियव्वु तण लग्गोसा वि दुव्व दव्यु ।। संपा-समाण घर-दासि-दास छाया विलासणिह तणुरुहासु ।। कंडूवमु पविहिय दुक्खु कामु गिरि सरि पवाह समु करण जामु।। फेणु व जोव्वणु सुइणं व देहु घण जल बुब्बुव सण्णिहु सणेहु।। 10 घत्ता- इय बुज्झिवि संकुज्झिवि झत्ति स-मइ जिणसासणे। विरएवि वारेवि कुपहि जति तिमिरासणि।। 178 ।। 10/13 वैराग्य का उपदेशइस कारण धर्म के ऊपर अपनी बुद्धि लगाइये क्योंकि धर्म के बिना सुख प्राप्त नहीं हो सकता। द्रव्य तो घर के भीतर ही स्थिर रहता है तथा ताम्बूल-सेवन, विभूषण, व्यसन आदि सभी दुर्व्यसनों में रति उत्पन्न कर कर्मों का बन्ध ही कराते हैं। वे परलोक में साथ नहीं जा सकते। __ मित्रगण, स्वजन, माता-पिता भी मृत्यु के समय दुःखीमन होकर रोते-कलपते हुए केवल श्मशान तक ही जाकर लौट आते हैं। (वे परलोक में साथ-साथ नहीं जा सकते) परलोक में तो केवल सम्यक्त्व धर्म ही साथ देता है। अतः उसे ही विवेकपूर्वक सहेजना चाहिए। धर्म ही प्रिय माता-पिता है, वही प्रिय मित्र है, वही कल्पवृक्ष है तथा वही श्रेष्ठ वित्त है। निकट बन्धुजन सन्ध्याकालीन राग के समान, भोगों को इन्द्रधनुष के समान, जीवन शरदकालीन मेघ के समान क्षणभंगुर द्रव्य दूब में लगे हुए ओसबिन्दु के समान, घर, दासी-दास आदि के सुख बिजली की क्षणिक चमक के समान, पुत्र, शरीर आदि के विलास चंचल छाया के समान, दुखकारक काम-विषय खुजली के समान, इन्द्रिय-समूह पर्वत से निकली हुई नदी-प्रवाह के समान, यौवन फेन (झाग) के समान, देह स्वप्न के समान तथा मित्रों का स्नेह जल के बुलबुले के समान है। घत्ता- यह जानकर शंका छोड़कर अनित्य-भोगों से हटकर शीघ्र ही अज्ञान के नाशक जिन-शासन में अपनी बुद्धि लगाइये और अपने को कुमार्ग में जाने से बचाइये।। 178 ।। पासणाहचरिउ :: 209
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy