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________________ अप्रभंश-साहित्य का वैशिष्ट्य : एक दृष्टि विश्व-वाङ्मय में मध्यकालीन बहुआयामी विस्तृत अपभ्रंश-साहित्य की तुलना में ठहरने वाले अन्य प्रतिस्पर्धीसाहित्य के अस्तित्व की सम्भावना नहीं की जा सकती। अवसरानुकूल विभिन्न रसों की अमृत-स्रोतस्विनी प्रवाहित करने के साथ-साथ श्रमण संस्कृति, किं वा, भारतीय संस्कृति के चिरन्तन आदर्शों की प्रतिष्ठा करने वाला वह एक ऐसा अनोखा साहित्य है, जिसके प्रबन्धात्मक आख्यानों में सर्वोदय-सिद्धान्त, अहिंसा एवं विश्व शान्ति के सार्वजनिक संदेशों के साथ-साथ अध्यात्म-दर्शन, धर्म एवं आचार तथा मानव-मूल्यों का अद्भुत समन्वय हुआ है। उनमें सौन्दर्य की पवित्रता एवं मादकता, प्रेम की निश्छलता एवं विवशता, प्रकृति-जन्य सरलता एवं मुग्धता, श्रमण-संस्था का कठोर आचरण, करुणा एवं दया का अजस्र-स्रोत, माता-पिता का वात्सल्य, पाप एवं दुराचारों का निर्मम दण्ड, वासना की सलता का प्रक्षालन, आत्मा का सुशान्त निर्मलीकरण,रोमांस का आसव एवं संस्कृति के पीयूष का मंगलमय सम्मिलन, प्रेयस् एवं श्रेयस् का ग्रन्थि-बन्ध और इन सबसे ऊपर त्याग और कषाय-निग्रह का निदर्शन समाहित है। इनके अतिरिक्त भी, उसमें समकालीन भारतीय इतिहास, संस्कति, लोक-जीवन, समाज एवं परिवार के विविध रूप, ग्राम्य-जीवन के विविध चित्रण तथा साहित्य की प्रायः समस्त विधाओं के साथ-साथ समकालीन भाषा, जीवन को ऊर्जस्वित कर देने वाली लोकोक्तियों एवं मुहावरों के जीवन्त रूप भी उसमें उपलब्ध होते हैं। देहली-दीपक-न्याय को चरितार्थ करने वाले इस साहित्य के माध्यम से जहाँ हम अपने अतीत की झाँकी ले सकते हैं, वहीं उसमें वर्तमान के लिए पथ-निर्देश भी खोज सकते हैं और उन्हीं के आधार पर भविष्य की रूपरेखाएँ भी चित्रित कर सकते हैं। यही कारण है कि भारत में आने वाले जितने भी मध्यकालीन विदेशी पर्यटक रहे, उनमें से अधिकांश ने अपभ्रंश (सचित्र एवं सामान्य) पाण्डुलिपियों के प्रति अपनी विशेष जिज्ञासा प्रदर्शित की। साथ ही, अन्य प्राच्य भारतीय पाण्डुलिपियों, जिनमें प्राकृत एवं संस्कृत की दुर्लभ पाण्डुलिपियाँ भी थी, इसके प्रत्यक्ष उदाहरण जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, जापान, इटली, नेपाल, तिब्बत, रूस एवं मंगोलिया आदि के वे प्राच्य शास्त्र-भाण्डार हैं, जहाँ वे आज भी सुरक्षित हैं। प्रवचनसार, मूलाचार एवं सिरिवालचरिउ (रइधू कृत) आदि की प्राचीनतम पाण्डुलिपियों की विदेशों में उपलब्धि की चर्चा मैं अन्यत्र कर चुका हूँ। प्राच्यविद्याविदों के सर्वेक्षण के अनुसार इस समय जैन एवं जैनेतर लगभग एक लाख सत्ताईस हजार से भी अधिक भारतीय प्राचीन एवं मध्यकालीन पाण्डुलिपियाँ विदेशी शास्त्र भण्डारों में सुरक्षित हैं, जो प्रायः अप्रकाशित हैं और जिनमें से सहस्त्रों पाण्डुलिपियों का पूर्ण सूचीकरण, मूल्यांकन आदि अभी तक नहीं हो पाया है। उनमें अनेक ताडपत्रीय एवं कर्गलीय जैन पाण्डुलिपियाँ भी हैं। बहुत सम्भव है कि अद्यावधि अनुपलब्ध घोषित ग्रन्थराज गन्धहस्तिमहाभाष्य एवं मध्यकालीन प्रशस्तियों में उल्लिखित अन्य अनेक ग्रन्थरत्न भी विदेशों के किन्हीं प्राच्य शास्त्र-भण्डारों में छिपे पड़े हों, तो कोई असम्भव नहीं। भारत के नवांगी जैन मन्दिरों, मठों एवं व्यक्तिगत संग्रहालयों में सहस्रों की संख्या में जो पाण्डुलिपियाँ संग्रहीत हैं, उनका भी पूर्णतया सूचीकरण, मूल्यांकन एवं प्रकाशन नहीं हो सका है, जिसकी तत्काल आवश्यकता है। प्राच्य भारतीय-विद्या की दृष्टि से अपभ्रंश की पाण्डुलिपियाँ विशेष महत्त्वपूर्ण इसलिए मानी गई, क्योंकि उनके लेखकों ने अपनी-अपनी रचनाओं में आत्म-परिचय, पूर्वकालीन एवं समकालीन साहित्य एवं साहित्यकारों, ऐतिहासिक एवं राजनैतिक घटनाओं तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का तथ्य मूलक, गुरुजनों द्वारा सुना हुआ अथवा आँखों देखा परिचय प्रस्तुत किया है ती साहित्य एवं साहित्यकारों के नामोल्लेख कर साहित्यिक इतिहास के लेखन के लिए भी उन्होंने प्रचुर सामग्री प्रस्तुत की है। प्रतिलिपिकारों ने भी ग्रन्थान्त में समकालीन अनेक प्रकार की ऐतिहासिक सूचनाएँ दी हैं। इन उल्लिखित बहुमूल्य रचनाओं में से आज अनेक रचनाएँ दुर्भाग्य से अनुपलब्ध अथवा दुर्लभ ही हैं। इस कारण इतिहास-निर्माण के लिए अपेक्षित अनेकविध महत्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रस्तावना :: 27
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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