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________________ 10/11 Lord Pāršwa gives an account of pain and sorrows of wanderings (taking birth) ___in 84 Lacs yonies (different kinds of lives). तिलमित्तु णत्थि तं भू-पएसु सुण्णउ जि किंपि जंपइ जिणेसु ।। जहिँ विविह-वाहि-संदोह-भीउ कालेण ण णदुप्पण्णु जीउ।। णिच्चेयर मरु-महि-सिहि-जलाहँ मुणि सत्त-सत्त लक्खइँ जि ताहँ।। पुणु चारि-चारि लक्खइँ सुराहँ तिरियहँ णारइयहँ भासुराहँ।। दो-दो लक्खइँ वियलिंदियाहँ दहलक्खइँ वणप्फइ काइयाहँ ।। चउदह लक्खं मणअहँ हवंति केवल-लोयण जिणवर चवंति।। चउरासी लक्खइँ जोणि जाणि सव्वइँ मिलियइँ जहिँ रमइ पाणि।। आयहिँ भमंतु णिय कम्मणीउ विहियावय विसयासत्तु जीउ।। ण रमइ अरुहागम भणिय धम्मि लग्गइ णिंदिय-जण-विहिय-कम्मि।। अह तहो ण दोसु णिय कम्म भुत्तु अवणेइ जिणेसर तणउ सुत्तु।। घत्ता- णउ विंदइ जिणु णिंदइ अणयवित्ति पविहावइ। वंदिणअहँ सुरमणुअहँ मोउ कासु णउ भावइ ।। 176 ।। 10/11 पार्श्व-प्रभु द्वारा 84 लाख योनियों का वर्णनजिनेश पार्श्व प्रभु ने बताया कि इस जगत में तिल मात्र भी ऐसा कोई प्रदेश शून्य नहीं है, जहाँ विविध प्रकार की व्याधियों से भयभीत होकर यह जीव अपने आयु-कर्म के समाप्त होने पर मरा अथवा उत्पन्न हुआ हो।। नित्य-निगोद, इतर-निगोद, वायुकाय, पृथ्वीकाय, अग्निकाय और जलकाय, इनकी 7-7 लाख योनियाँ हैं (इस प्रकार इन षट्कायिक जीवों की 6x7=42 लाख), देवों की 4-4 लाख योनियाँ, इसी प्रकार तिर्यंचों की 4 लाख, एवं नारकियों की 4 लाख, (कुल 4+4+4-12 लाख)। दो इंद्रियों की 2 लाख, तीन इंद्रियों की 2 लाख, एवं चार इंद्रियों की 2 लाख, ऐसे विकलत्रयों की कुल 2+2+2=6 लाख तथा प्रत्येक वनस्पति-कायिकों की 10 लाख योनियाँ, मनुष्यों की 14 लाख योनियाँ, इस प्रकार 84 लाख योनियाँ जिनवर देव ने अपने केवलज्ञान से देख कर कहीं है। ये सभी मिलाकर चौरासी लाख जीव-योनियाँ' जानो। इन सभी योनियों में प्राणी रमते हैं। अपने-अपने कर्मों से प्रेरित होकर यह जीव अपनी आपदाओं और विषयों में आसक्त होकर इन योनियों में भटकता रहता है। जो अरिहन्तों द्वारा कथित आगमों में कहे गये धर्म में नहीं रमते और निन्दित (हिंसक, एकान्ती) जनों द्वारा विहित कर्मों लगे रहते हैं, वे ही इन योनियों में जन्म लेते हैं अथवा यह जीव का दोष नहीं है, यह तो निज कर्मों का ही भोग होता है, जिसे जिनेश्वर-कथित आगम-सूत्र ही हटा सकता है। घत्ता- जो जिनेन्द्र को नहीं जानता, उनकी निन्दा करता रहता है तथा अन्यायवृत्ति को बढ़ाता रहता है, और भोगों में आसक्त बना रहता है। भला बन्दीजनों द्वारा नमस्कृत देवों एवं मनुष्यों के लिये प्राप्त भोग किसे अच्छे नहीं लगते? || 176 ।। 1. मातृ-पक्ष के परमाणु, जहाँ पर जीवों की उत्पत्ति होती है, ऐसे आधारभूत परमाणुओं को योनि कहते हैं। पासणाहचरिउ :: 207
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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