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________________ 9/14 Description of mountains like Nişadha etc. and Kšetras (regions) like Bharata etc. पुणु कणयमउ णिसहु धरणीहरु उयउ करइ जस् सिहरि तमीहरु।। भोयभूमि तिज्जी सुर-कुरुवर जहिँ चिंतियउ दिति सुरतरुवर।। सुरगिरि दाहिण-दिसि एउ जारिसु उत्तरेण परियाणहिँ तारिसु।। उत्तरकुरु-सुरकरु-गुणधारिणी दहविह सुरतरुभरु मणहारिणी।। पुणु णीलइरि-महागिरि सुंदरु किण्णर-सुर परिपूरियदरु।। रम्मय भोयभूमि पुणु सोहण जहिँ चारणमुणि करहिँ पवोहण।। पुणु रुप्पहरि महागुण जुत्तउ सेय भुवंगमु णावइ सुत्तउ।। पुणु हइरण्णवंत सुहकारिणी भोयभूमि उज्जु व अवियारिणी।। पुणु गिरि-सिहरि तरुगीढहो माणत्थंभु णं मेइणि वीढहो।। पुणु अइरावतखेत्तु विसुद्धउ छक्खंडहिं मंडियउ पसिद्धउ ।। भरहेरावय दोह वि वरिसहँ जिणकल्लाण विहिण जण हरिसहँ।। छमेयहँ दोइवि अवसप्पिणि वहइ सया तह पुण उवसप्पिणि।। 10 घत्ता- आयमहँ जिणहँ विहि मिलियहँ काल-चक्कु फुडु लक्खिउ। बलु-आउ-सरीरहो माणु समाणु स भक्खिउ ।। 158 ।। 9/14 निषध आदि पर्वतों एवं भरत आदि क्षेत्रों का वर्णनउसके आगे कनकमय पर्वत है, जिसके शिखर पर सूर्य का उदय होता है। उसके आगे तीसरी देवकुरु नाम की भोग-भूमि है, जिसमें कल्पवृक्ष मनचाहे फल देते रहते हैं। ये सब सुमेरु की दक्षिण दिशा में है। जैसी रचना दक्षिण दिशा की बतलाई गई है, वैसी ही उत्तर दिशा की है। उसे उत्तरकुरु कहते हैं। देवकुरु के समान उत्तरकुरु गुणों वाली भूमि है, जो दस प्रकार के कल्पवृक्षों से मनोहारिणी है। उसके आगे नीलगिरि नाम का सुंदर महापर्वत है, जो किन्नर देवों से भरी कंदराओं वाला है। उसके आगे सुशोभित रम्यक भोगभूमि है, जहाँ चरण मुनि जाकर प्रबोध (उपदेश) करते हैं। उसके आगे महागुण युक्त रुक्मि पर्वत है, जो ऐसा लगता है, मानों सोता हुआ धवल सर्प ही हो। फिर सुखकारिणी भोग-भूमि है, जिसका नाम हैरण्यवत् है और जो ऋजु और अविकारिणी है। उसके आगे पर्वतों और वृक्षों से व्याप्त शिखरी महापर्वत है। वह ऐसा प्रतीत होता है मानों पृथ्वी के आसन का मान-स्तम्भ ही हो। उसके आगे ऐरावत क्षेत्र है, जो विशुद्ध छः खंडों से मण्डित और प्रसिद्ध है। भरत एवं ऐरावत दोनों ही क्षेत्रों में जिनेन्द्र के पंचकल्याणकों द्वारा जनता हर्षित रहती है। इन दोनों ही क्षेत्रों में छ: काल भेदों वाली अवसर्पिणी तथा वैसी ही उत्सर्पिणी क्रम-क्रम से सदा प्रवर्तती रहती है। घत्ता- आगमों के अनुसार इन दोनों के मिलने से एक (पूर्ण) काल चक्र होता है, ऐसा प्रभु ने स्पष्ट देखा है। इनमें मनुष्यों के बल, आयु और शरीर का मान क्रम से घटता और बढ़ता रहता है। दोनों का प्रमाण समान होता है। ।। 158 ।। 188 :: पासणाहचरिउ
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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