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________________ जह-जह जिणवरु णिम्मलमइणा परियरियउ पोमावइ पइणा।। तह-तह दुईसण कमठासरु करइ महाउवसग्गु सुभासुरु।। विउणु तिउणु चउगुणु पंचगुण्णउ छग्गुणु सत्तउणउ अट्ठउणउ।। हेलए धूलि-वालि-जल-जलणहिँ लहु मेल्लियहि वइरि णिद्दलणहिँ।। गिरि णिवडंत णिहालिवि भावण । वेंतर लेंति तासु असुहावण।। समणे चमक्कहि गह-तारायण बेबहि वेलंधर रुइ-भायण।। जइवि सयल तासइ कमठासुरु सुरणरवर मेल्लंतु महासरु ।। तो वि ण चलइ चित्तु फणिरायहो अहणिसु आराहिय जिणरायहो।। विप्फुरंत फण-मीसण-कायहो अगणिय कुलिसाणल जलवायहो।। फण-मंडववारिय रिउघायहो णाणा णाइणिविंद सहायहो।। घत्ता- जं-जं मेल्लइ पहरणु तुरिउ असुरेसु गयणि अमरिस-भरिउ। तं-तं विलयहो लहु जाइ कह णिद्धणहो मणोरह हियए जह।। 137 ।। 15 8/6 In such disturbing conditions also PārŚwa attains the ultimate knowledge (Kewalajñāna). वत्थु-छन्द- एम दूसहु घोरु उवसग्गु । गय पास पासहो जिणहो णिम्मलेक्कचित्तहो सहंतहो। जैसे-जैसे निर्मलमति के पति (धरणेन्द्र) ने जिनवर का रक्षण किया, वैसे ही वैसे दुर्दर्शन (देखने में भयंकर) वह भास्वर कमठासुर भी एक के बाद एक महा उपसर्ग करने लगा। उसने अपने शत्रु का दलन करने हेतु तत्काल ही द्विगुणी, त्रिगुणी, चतुर्गुणी, पंचगुणी, छहगुणी, सातगुणी, अठगुणी और नवगुणी लीलाओं से धूलि-का बबण्डर, जल और अग्नि को छोड़कर महा उपसर्ग किये। पर्वत को गिरते हुए देखकर भवनवासी एवं व्यंतर देवों ने कमठासुर के उस कार्य को असुहावना कहकर निन्दा की। ग्रह-तारागण अपने मन में आश्चर्यचकित हो उठे | कान्ति के भाजन वेलंधर कुमार भी काँपने लगे। सर सभी को त्रास दे रहा था, सर एवं नरवर सभी महास्वर (हाहाकार) कर रहे थे, तो भी अहर्निश जिनराज की आराधना करने वाले उस फणिराज का चित्त थोड़ा भी चलायमान न हुआ। जिस फणिराज की काया भीषण फणों से चमक रही थी, तथा उस कमठासुर के अगणित बज्र, अग्नि, जल तथा पवन के (असह्य) घात सह रहे थे, नाना नागनियों की सहायता से वह अपने फणमंडल से उस रिपु के दुर्दम घातों (चोटों) का निवारण कर रहा था। घत्ता— क्रोधावेश में आकर वह असुरेश-कमठ वेग पूर्वक जैसे-जैसे आकाश से शस्त्र छोड़ रहा था, वे सभी तत्काल ही उसी प्रकार विलीन होते जा रहे थे, जिस प्रकार कि निर्धन पुरुष के हृदय स्थित मनोरथ देखते-देखते विगलित हो जाते हैं।। 137 || 8/6 विभिन्न उपसर्गों के मध्य भी पार्व को केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता हैवस्तु-छन्द- इस प्रकार पार्श्व प्रभु उन असहय उपसर्गों को निर्मल एकाग्रचित्त पूर्वक सहते रहे। उसी समय क्षुब्ध हुए वे सभी देवगण उनके पास पहुँचे। उस समय वे (प्रभु) बारहवें गुणस्थान में स्थित रहकर स्थिरमन पासणाहचरिउ :: 165
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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