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________________ 10 15 हुववउ पत्तु तुरंत पवणु व वडवानल जह तह पजलंतउ धूमकेउ जह तह धूमालउ दस दिस मुक्क फुलिंगुग्गारउ खयकालु व सयलिंगि खयंकरु तडतडंतु जालाहिँ तुडंतउ जालो लिहिँ गयणयलु रहंतउ वोमहो वोमयरइँ पाडंतउ सोसंत सलिलइँ खयतवणु व ।। समहीयलु णहयलु मइलंतउ । पसरिय दीहर-जाल वमालउ ।। रत्तवण्णु णावर अंगारउ ।। फणि सुर-र-गयणयर भयंकरु ।। घर - पुरणयरहँ उवरि पडंतउ ।। तरुवर वल्लहिँ कुहर दहंतउ ।। विवर भुअंगइँ णीसारंतउ ।। पत्ता - एरिसु वि हुआसणु जिणवरहो पय-पंकय पाडिय सुरवरहो । पयपुरउ परिट्ठिउ परिसहइ णं दीवउ दासत्तणु वहइ || 126 ।। 7/13 When the disturbances created by the God of Fire becomes ineffective the roaring ocean, sent for the purpose is highly impressed with the brilliance penance of Pārśwa and becomes his servant (slave) fells on his feet accepting him (Pārśwa) as his Master. वत्थु-छन्द— जा ण दड्ढउ जायवेएण | जिण पायरुह रएण अरुह तित्थ तव धत्थ तेएण । पाय पुरउ संपत्तएण अतिमार परिमुक्कवेएण | | प्रज्वलित होने लगी, जिसने मही से लेकर नभ मण्डल तक को मलिन कर डाला। फैली हुई लम्बी ज्वालाओं से व्याप्त वह ऐसा धूमालय जैसा हो गया, मानों (साक्षात् ) धूमकेतु ही हो । उस अग्निदेव ने दसों दिशाओं में ऐसे स्फुलिंग छोड़े, मानों वे रक्त वर्ण के अंगारे ही हों। क्षयकाल के समान सभी प्राणियों का क्षय करने वाला, नागेन्द्र, सुरेन्द्र, नरेन्द्र एवं विद्याधरों के लिये भी भयंकर, तडतड कर टूटती हुई ज्वालाओं को घरों, पुरों एवं नगरों के ऊपर गिराता हुआ, ज्वालावलियों में गगनतल को आच्छादित करता हुआ, तरुवरों, बल्लरियों एवं उनके कुहरों को जलाता हुआ, आकाश के पक्षियों को गिराता हुआ, और विवरों से भुजंगों को खदेड़ता हुआ घत्ता— वह प्रचण्ड अग्निदेव भी, जिनके पद-कमलों में इन्द्र भी नतमस्तक रहा करता है, ऐसे जिनेन्द्र के चरणों के सम्मुख ऐसा सुशोभित होने लगा, मानों दीपक ने ही उनकी दासता को स्वीकार कर लिया हो। (126) 7/13 असुराधिपति द्वारा प्रेषित अग्निदेव - कृत उपसर्ग के निष्प्रभावी हो जाने के बाद पुनः उपसर्ग हेतु भेजा गया रौद्र - समुद्र पार्श्व के तपस्तेज से प्रभावित होकर उनके चरणों का सेवक बन जाता है वस्तु छन्द जब वह अग्निदेव भी अर्हत् तीर्थंकर (पार्श्व प्रभु) को उनके तपस्तेज के प्रभाव के कारण उन्हें चलायमान न कर सका और वह उनके प्रभाव से निष्प्रभ ही नहीं हो गया, बल्कि उनके चरणों के आगे आकर भक्तिभाव से झुककर अपनी वेग गति को छोड़कर, शान्त भी हो गया, तब उस पासणाहचरिउ :: 149
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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