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________________ 5 7/5 Yaksharaja named after Saumanas (a devine soul) advises sincerely to the demon-king not to bring obstacles (Upsargas) on deep meditating ascetic (Pārśwa Muni). 10 वत्थु-छन्द - किं सुरेसिण किंमहिराएण । केणावि किं वइरिएण किं जिणेण केवल समिद्धिएण । किं खयर रायाहिवेण किमपरेण भुअबल विरुद्धिएण ।। इय संकप्प वियप्पयरु कमठासुरु हुउ जाम । लहु विहंगु विवरीउ तहो णाणुप्पण्णउ ताम । । छ । । स- मणि तेण णाणेण वियाणिउ सो मरुभूइ एहु महु वइरिउ अजवितं विरोहु णउ मेल्लइ हो करत विणिवारमि किं बहु भासिएण तवतत्तउ एव्वहिँ जाइ जियंतउ दुक्करु जइ फणवइ फण-मंडिवि पइसइ तोवि ण छड्डम तणु मल मंडिउ एम भविणु जाम पधाइउ चिरविरइउ विरोहु परियाणिउ ।। जो चिरु पंचवार मइँ मारिउ ।। जेण तेण एउ जाणु ण चल्लइ ।। जह चिरु तह एव्वहि पुणु मारमि ।। कम्म-वसेण एहु इह पत्तउ ।। मइँ दिउ कहि थाइ सुहंकरु ।। अह सुररायहो सरणु पईसइ || जाम ण दुट्ठासउ मइँ खंडिउ ।। करयल कय पवि-पहरण राइउ ।। 7/5 सौमनस नामक यक्ष ध्यानस्थ पार्श्व पर उपसर्ग न करने के लिये असुराधिपति मेघमाली को समझाता है वस्तु-छन्द - क्या सुरेश्वर इन्द्र ने ? क्या अहिराज नागेन्द्र ने? क्या किसी शत्रु ने अथवा क्या कैवल्य - समृद्ध जिनेन्द्र ने? क्या किसी राजाधिराज विद्याधर ने? अथवा, क्या किसी दूसरे मेरे बाहुबल-विरोधी ने मेरे इस विमान को रोका है? जब वह असुरराज कमठ संकल्प-विकल्प कर रहा था, तभी उसे विपरीत विभंग-अवधिज्ञान हो गया— अपने मन में उस विभंग ज्ञान द्वारा उसने जाना और पूर्वकृत विरोध का स्मरण किया कि यह मेरा वही शत्रु मरुभूति है, जिसे पूर्वभव में मैंने पाँच बार मारा था । (देखो - ) आज तक भी उसने अपना विरोध-भाव नहीं छोड़ा और इसीलिये उसके द्वारा रोके जाने के कारण ही मेरा यह यान आगे नहीं चल पा रहा है। इसकी क्रूरता का मैं अब निवारण किये देता हूँ । किन्तु अधिक कहने से क्या लाभ? तपस्या करता हुआ कर्म संयोग से वह मुझे यहाँ पुनः मिल ही गया है, अतः अब इसका जीवित बच पाना दुष्कर है। मेरी दृष्टि से अब यह सरलतापूर्वक बचकर जायेगा कहाँ ? यदि यह फणिपति के फण मण्डल में भी घुसकर बैठ जाय, अथवा देवेन्द्र की शरण में भी चला जाय, तो भी इस मल-मण्डित तनधारी को (जीवित) नहीं छोडूंगा, और इस दुष्टाशय को खण्डित करके ही रहूँगा । यह कहकर वह अपने हाथ में बज्र-शस्त्र लेकर, जैसे ही पूर्व जन्म के मरुभूति के जीव इन (पार्श्व ) की ओर पासणाहचरिउ :: 139
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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