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________________ जह धरियउ ण पहावइ करग्गु तं सुणिवि वयणु हयसेणु राउ सो आदण्णउ परिवडिउ केम उट्ठिउ पुणोवि चेयण लहेवि जह जिणवरु संजमजत्त लग्गु।। जायउ अइदुक्खिउ णं वराउ।। महियले विमूलु चिर कुरुहु जेम।। सोयंतउ सयणहिँ सिरु धुणेवि।। घत्ता- हा-हा पुत्त सलक्खण जाणिय लक्खण कुल उययगिरि दिवायर। मई एक्कल्लउ मेल्लिवि परियणु सल्लेवि कँहि गओसि गुणसायर।। 111 ।। 6/17 Aggrieved Hayasena is consold by his counsellor. पइँ बिणु को मुज्झ मणोरहाइँ पूरवइ पुत्त पयणिय सुहाइँ।। पइँ बिणु को वाहइ वर तुरंग हा पुत्त दमड़ को तह मयंग।। पइँ बिणु को पच्चुत्तरु करेइ रणि जंतहो महु को करु धरेइ।। पइँ बिणु वाणारसि सयल सुण्ण तुव विरहवेयणादण्ण रुण्ण ।। इय सोउ करइ हयसेणु जाम णिउण-मइहिँ मंतिहिँ वुत्तु ताम।। भो देव मेल्लि सुअ तणउ सोउ संसारहो कारणु जणिय रोउ।। जह हवइ जोउ तह पुणु विओउ एउ मुणेवि विउसु को करइ सोउ।। उन्होंने (पार्श्व ने) जिस प्रकार (राजकुमारी) प्रभावती के साथ पाणिग्रहण नहीं किया और जिस प्रकार वह जिनवर अपनी संयम-यात्रा में लग गया, यह समस्त वृत्तान्त (अथ से लेकर इति तक) उन्हें कह सुनाया। रविकीर्ति से समस्त वृत्तान्त सुनकर राजा हयसेन दीन-हीन की भांति अत्यन्त दुखी हो उठे। उसे सुनकर वे (हयसेन) किस प्रकार गिर पड़े? ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार कि जड़ रहित जीर्ण वृक्ष भूमिसात हो जाता है। थोड़ी ही देर में चेतना पाकर वह पुनः उठ बैठे और पलंग पर लेटकर सिर धुनने लगे और कहने लगे— घत्ता- हाय-हाय, हे लक्षण-समृद्ध पुत्र, हे लक्षण शास्त्रों के ज्ञाता, हे उदयगिरि के दिवाकर, हे गुणसागर, मुझे अकेला ही छोड़कर तथा परिजनों को दुखी बनाकर तुम कहाँ चले गये ? (111) 6/17 राजा हयसेन को शोकाकुल देखकर उनका मन्त्री उनको समझाता है(पुत्र को लक्ष्य कर) हे पुत्र, अब तुम्हारे बिना मेरे सुखदायक मनोरथ कौन पूर्ण करेगा और सुख देगा? तुम्हारे बिना उत्तम घोड़ों को कौन चलायेगा ? और हे पुत्र, तुम्हारे बिना अब मत्तगजों को कौन वश में करेगा ? तुम्हारे बिना प्रत्युत्तर कौन करेगा और हाथ पकड़कर मुझे युद्ध में जाने से कौन रोकेगा? तुम्हारे बिना समस्त वाणारसी नगरी शून्य हो गई है और तुम्हारी विरह-वेदना से सभी दुखी और रुदन कर रहे हैं। इस प्रकार जब राजा हयसेन शोक व्यक्त कर रहे थे, तभी एक निपुण-मति मन्त्री ने उन्हें समझाते हुए कहाहे देव, पत्र का शोक करना छोडिए। क्योंकि शोक ही संसार का कारण और रोगों को उत्पन्न करने वाला है। जगत में जैसे संयोग होता है, वैसे ही वियोग भी आता है। प्रकृति का यही नियम है। अतः ऐसा कौन विद्वान् है जो शोक करेगा। यही सोचकर जिन्होंने सुमेरु पर्वत पर जलाभिषेक प्राप्त किया है, जिन्होंने समस्त लोक-मार्ग का ज्ञान प्राप्त 130 :: पासणाहचरिउ
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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