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________________ दलंतु बलाइँ लवंतु विरूउ सबाणु सरासणु गेण्हइ जाम ससंदणु बाणु सरासणु तासु समायउ णं जमरायहो दूउ।। दवत्ति पुणो वि समाहउ ताम।। कओ हयसेण सुएण हयासु।। 15 घत्ता- जह-जह ण कज्ज परिसंघडइ विहिवसेण पारंभिउ विहडइ। तह-तह विउणउ अमरिस चडइ धीरमणह ता जा फलु पयडइ।। 91|| 5/12 Sensing his defeat excited Yavanrāja throws away powerfull ballistic missiles on Pārswa. दुवइ- एत्थंतरे करेवि करि जउणें खयरवियर सुदित्तिया। मुक्क अमोहसत्ति सुहणासणि णावइ पिसुणवित्तिया।। छ।। दीसइ समरंगणि गच्छमाण रयणियरिव रेहइ बलु दलंति धुत्ति व परणरवरे संचरंति यममुत्ति व सहसा जणु हणंति णहयल-णिवडिय उक्का समाण।। जमरायहो जीह व सलवलंति।। तक्करिव पाण-रयणइँ हरंति।। दुव्वारिणि णारि व भउ जणंति।। सेना को रौंदता हुआ तथा भोंडे-भोंडे प्रलाप करता हुआ वह ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों यमराज का दूत ही हो। जब उसने बाण सहित धनुष ग्रहण किया, तभी तत्काल ही हताशा भरे उसे पार्श्व ने पुनः आहत तो कर ही दिया, उसके रथ तथा धनुषबाण भी नष्ट कर डाले। घत्ता- जैसे-जैसे इच्छित कार्य में धीर-वीर मनवालों को सफलता नहीं मिल पाती और दुर्भाग्य से प्रारम्भ में ही उनके कार्य का विघटन हो जाता है, वैसे-वैसे ही उन्हें तब तक द्विगुणित रोष बढ़ता रहता है, जब तक कि उन्हें अपनी सिद्धि प्राप्त नहीं हो जाती। (91) 5/12 अपनी पराजय होती देखकर क्रुद्ध यवनराज कुमार पार्श्व पर अमोघ शक्ति-प्रक्षेपास्त्र छोड़ता हैद्विपदी—इसी बीच उस यवनराज ने क्षयकालीन सूर्य-किरणों के समान सुदीप्त एवं सुख नाशक अमोघ शक्ति नामक आयुधास्त्र का प्रहार किया। वह ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों उसने शुभ नाशक पिशुनवृत्ति का ही प्रक्षेप किया हो। समरांगण में जाती हुई वह अमोघशक्ति नभस्तल से गिरी उल्का (विद्युत्पात) के समान दिखाई दे रही थी। वह रज-समूह के समान सुन्दर लग रही थी किन्तु वह सैन्य-समूह का दलन कर रही थी। वह यमराज की जीभ के समान सलबला रही थी, जिस प्रकार धूर्त कुट्टिनी नारी पर-नरों के पास (निस्संकोच ही) चली जाती है, उसी प्रकार वह अमोघशक्ति भी उस नर-वर कुमार पार्श्व के पास शीघ्रतापूर्वक चली जा रही थी। चोर जिस प्रकार रत्नों को चुराता है, उसी प्रकार वह अमोघशक्ति भी अपने शत्रुओं के प्राणरूपी-रत्नों का अपहरण करने वाली थी। यममूर्ति जिस प्रकार सहसा ही लोगों को मार डालती है, उसी प्रकार वह अमोघशक्ति भी प्रतिपक्षियों का संहार करने वाली थी और इस प्रकार वह दुश्चारिणी नारी के समान सभी के मन में भयावेग उत्पन्न कर रही थी। पासणाहचरिउ :: 107
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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