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________________ घत्ता-- एह संगरु एह सुणरपवरु जेण महारा गयवर घाइय। उवरोहे रविकित्तिहे णिवहो पेयरायमंदिर पहि लाइय ।। 88 ।। 5/9 Abusing dialogues between Yavanrāja and PārŚwa in the arena. दुवइ- दिव्वाउह खिवेवि विणु खे लक्खेवि बइरि जइ रणे। पेक्खंतहँ सुराहँ विणिवायमि ता जसु भमइ तिहुयणे।। 6 ।। इय चिंतिवि सो पलयक्कतेउ वइरीयण विसहर-वइणतेउ।। गज्जंतउ दिक्करडिव रउद्दु मज्जाय-विवज्जिउ णं समुद्दु ।। णामेण जउणु जयलच्छिणाहु धायहु पवणु व जहिँ पासणाहु।। जंपंतउ को सो मज्झ जेण विणिवाइय गयवर णरवणेण।। अमुणंतें महु पोरिसु विसालु समरंमणे जयलच्छीरसालु।। लहु सरउ सरणु महु चरण ताम ण विसज्जमि दुद्धर बाण जाम।। तं सुणिवि वयणु कोवारुणेण पिसुणिउ कालेण व दारुणेण।। वाणारसि-सामि तणुरुहेण कररुह परिमलिय सिरोरुहेण।। रे-रे मयंध मायंगु जेम बोल्लंतु ण लज्जहि धिट्ट तेम।। हउँ पासणाहु हयसेणपुत्तु मइँ चूरिय तुह गयवर णिरुत्तु।। घत्ता- यह विशेष युद्ध और ऐसा विशेष नर-प्रवर, जिसने कि हमारे गजवरों का संहार कर डाला है, प्रतीत होता है कि राजा रविकीर्ति के अनुरोध से ही हमारे ये महागज यमराज के मन्दिर के पथ पर लगाये गये हैं। (88) 5/9 यवनराज एवं कुमार पार्श्व का समर-भूमि में भर्त्सनापूर्ण वार्तालापद्विपदी—(कपट-भावना से यवनराज ने अपने मन में विचार किया कि-) बिना समय खोए तत्काल ही रणभूमि में शत्रु-जनों को देखते ही यदि उन पर मैं दिव्यायुधों का प्रक्षेपण कर डालूँ, तो देवों के देखते हुए भी उन शत्रुओं को मैं मार सकूँगा और इससे मेरा यश भी तीनों लोकों में फैल जाएगा। इस प्रकार विचार कर प्रलयकालीन सूर्य के समान तेजस्वी, शत्रुजन रूपी भुजंगों के लिये गरुड़ के समान, दिग्गजों के समान गरजता हुआ वह (यवनराज) ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों मर्यादाविहीन रौद्र-रूपधारी समुद्र ही उछल रहा हो। वह कुख्यात यवनराज प्रचण्ड वायु के समान उस ओर झपटा, जहाँ जयलक्ष्मी के नाथ पार्श्वनाथ स्थित (मोर्चा सम्हाले हुए) थे। वहाँ उसने चिल्लाते हुए कहा- इस रण में वह कौन सा नरेन्द्र है, जिसने हमारे श्रेष्ठ गज-समूह का विनिपात (संहार) किया है? वह (निश्चय ही) समरांगण में जयलक्ष्मी के रसाल मेरे विशाल पौरुष को नहीं समझ सका है। अतः मैं अपने दुर्धर धनुषबाण जब तक छोडूं, इसके पूर्व ही, वह मेरे चरणों की शरण ले ले। यह सुनकर क्रोधावेश में तमतमाये मुख वाले, दारुण काल के समान भयंकर, वाराणसी-नरेश के सुपुत्र पार्श्वनाथ हथेलियों से अपना सिर सहलाते हुए, उस पिशुन (यवनराज) से बोले - रे-रे मदान्ध, रे धीठ, मातंग के समान, तुझे बोलते हुए लज्जा क्यों नहीं आती? मैं हयसेन का पुत्र पार्श्वनाथ हूँ, मैंने ही तेरे मदोन्मत्त समस्त गजवरों को चूर-चूर किया है। यदि त मेरी शक्ति को जान गया है, तब अपने भुजयगल की शक्ति दिखाये बिना त शीघ्र ही रण से विरत हो जा। 104 :: पासणाहचरिउ
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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