SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 5 10 15 पट्ठविय तेवि खंडिय तुरंत पुणु वसु विमुक्क लहु तेवि छिण्ण पुणु सोलह ते कप्परिय केम पुणु कोउ करेवि वत्तीस मुक्क गय विहल तेवि णं पुण्णहीण इय बाणजालु खंडिउ समग्गु रविकित्ति कित्ति पूरिय दिसासु तेहिँ वि पच्छाइउ सिरिणिवासु चूरेवि रहु छिंदेवि चारु छत्तु तिक्खग्ग खुरुप्पें छिण्णु सीसु गय सीसुवि धडु धावंतु भाइ णं विवरें विसरि विप्फुरंत ।। चउदिसहिँ स बाणहि वलि वि दिण्ण | | तिहुअण णाहेण कसाय जेम ।। णं जम परिपेरिय दूअ ढुक्कु ।। अद्धाय मारण मणणिहीण । । पुणु ससिलीमुहु मेल्लणहिँ लग्गु ।। विरइय वइरीयण बाणपासु ।। णावइ कम्महिं जीवहो विलासु ।। फाडेवि धयवडु विरएविअ खत्तु ।। कमलु व हंसें भूभंगभीसु ।। बहु अधार डु-पवरु णाइँ ।। पत्ता- पुणु सोवि सहइ रण महि पडिउ सर संथरु वित्थरेवि णिरुत्तउ । सिरि दाणें तोडिवि सामि - रिणु णिच्चिंत होएविणु सुत्तउ ।। 78 ।। रविकीर्ति ने तत्काल ही उसी प्रकार खण्डित कर दिया, मानों बाँबी से सर्प ने फुफकार मारकर ही उन्हें धराशायी कर दिया हो । पुनः उस वीर श्रीनिवास ने आठ बाण छोड़े। रविकीर्ति ने उन्हें भी छिन्न-भिन्न कर दिया। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों चारों दिशाओं में उन बाणों की बलि ही चढ़ा दी गई हो। श्रीनिवास ने पुनः सोलह बाण छोड़े । रविकीर्ति ने उन्हें भी नष्ट कर डाला। किस प्रकार ? ठीक, उसीप्रकार जिस प्रकार कि त्रिभुवननाथ जिन द्वारा कषायों को नष्ट कर दिया जाता है । तब क्रुद्ध होकर उस श्रीनिवास ने बत्तीस बाण छोड़े, जो ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानों यमराज द्वारा प्रेरित उसके दूत ही उसकी ओर ढूंक रहे हों। किन्तु वे भी मार करने में उसी प्रकार विफल हो गये, जैसे मनहीन (संकल्परहित) पुण्यहीन व्यक्ति अपने कार्य में बीच में ही विफल हो जाता है। इस प्रकार राजा रविकीर्ति ने (स्वयं ही) अपने बाण इस प्रकार छोड़ना प्रारम्भ किया, मानों उसकी कीर्ति से दशों दिशाएँ ही भर गई हों। उसके बाणों ने बैरीजनों को अपने बाण-पाश में जकड़ दिया। श्रीनिवास इन बाणों द्वारा उसी प्रकार आच्छादित कर लिया गया, जिस प्रकार कर्मों के द्वारा जीव का विलास (ज्ञान-स्वरूप) ढँक दिया जाता हे। उसने श्रीनिवास के रथ को चूर-चूर कर उसके सुन्दर छत्र को क्षार-क्षार कर डाला, ध्वजा को फाड़ कर उसे क्षत-विक्षत कर दिया और फिर उसने तीखी नोक वाले खुरपे से भ्रूभंग से भयानक दिखाई देने वाले इस श्रीनिवास के सिर को उसी प्रकार छेद डाला, जिस प्रकार हंस कमल को। सिरविहीन वह धड़ रणभूमि में ऐसे दौड़ रहा था, मानों कोई कुशल बहुरुपिया नट ही दौड़ लगा रहा हो । घत्ता - रणभूमि में पड़े हुए श्रीनिवास का धड़ सुशोभित होने लगा। वह ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों शर-शैया पर ही पड़ा हो। इस प्रकार उसने अपना सिर दान में देकर अपने स्वामी यवनराज का ऋण चुका और निश्चिन्त होकर सदा-सदा के लिये सो गया । (78) दिया पासणाहचरिउ :: 89
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy