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________________ धारिय णाणाविह पहरणाइँ मणि णिम्मिय दिढ-पग्गहाइँ आयड्ढियाइँ कंठीरवे हिँ विफारिय बहुविह पुंडरीय उतरिय धयावलि फरहरंति चालिय चामर णारीयणेण मरु-मरु भणंतु णीसंक थक्क णर-कर-कोणाहिय समरतूर वइरिययणविंददप्प-हरणाइँ।। णिय किरण पसर रवियर रहाइँ।। दिढदाढहिँ मणमारुअजवेहिँ।। णं णरसरे फुल्लिय पुंडरीय ।। सइरिणि व सहइ णहे संचरंति।। अणवरउ सुरय-विणिहियमणेण।। पक्कल पाइक्क मुअंति हक्क ।। गंभीर राव भुवणंतपूर।। ____10 घत्ता- जिणचलण कमलजुउ संभरेवि केणवि कवड सदेहि णिवेसिउ। रोमंच जणणु मण-पडिखलणु पिययम-कर-फंसणु परिसेविउ ।। 62।। 4/4 Proudy utterances of the great warriors. दुवइ- कासुवि रणरसेण तणु रेहइ रोमंचहिँ विराइओ। णं मणहर वसंत वणलच्छिए वउलु महीउदाविओ।। छ।। सण्णाहु ण गेण्हइ कोवि वीरु मणि मुणिवि भारु केवलउ धीरु।। गेण्तु कोवि सो इय महंतु णं अप्पउ पियदिट्ठि रहंतु ।। पृथिवीतल को रौंद डालने वाले कलधौत तुरंगम हिनहिना रहे थे, बैरीजनों के दर्प का हरण करने वाले विविध प्रहरणों (शस्त्रास्त्रों) से लदे हुए और मणिनिर्मित सुदृढ़ प्रग्रहों (पगहों-रस्सियों) द्वारा कसे हुए सुसज्जित रथ अपनी किरणों के प्रसार से सूर्य-रथ के समान प्रतीत हो रहे थे, जो कि सुदृढ़ दाढ़ों वाले मन और पवन की गति से चलने वाले कण्ठीरवों (सिहों) के द्वारा खींचे जाते थे, देदीप्यमान विविध प्रकार के पुण्डरीक (चीते) ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानों मानव रूपी सरोवर में पुण्डरीक (कमल-पुष्प) ही खिल उठे हों। आकाश-मार्ग में फहराती हुई उत्तुंग ध्वजावलियाँ ऐसी सुशोभित i, मानों स्वैरिणी मदोन्मत्त नारियाँ ही हों, अनवरत सुरत में मन रखने वाली नारीजनों के द्वारा चमर दुराये जा रहे थे और आये हुए निर्भीक, निशंक एवं दृढ़ पैदल वीर युवक मारो-मारो की हाँक लगा रहे थे, मनुष्यों के हाथों के कोण से समर-तूर-वाद्य बजाये जा रहे थे, जो अपने गम्भीर-घोष से लोकान्त को पूर रहे थे। घत्ता- जिनेन्द्र के दोनों चरण-कमलों का स्मरण कर किसी-किसी ने अपनी देह में रोमांच के जनक, मन को प्रति स्खलित करने वाले, प्रियतमा के कर-स्पर्श के समान प्रतीत होने वाले कवच को धारण किया। (62) 4/4 रणबाँकुरे महाभटों की दर्पोक्तियाँ द्विपदी—किसी वीर का शरीर रोमांच से विराजित तथा रण के रस से सुशोभित हो रहा था। वह ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों मनोहर वसन्त-ऋतु की वन-लक्ष्मी ने वकुल-वृक्ष ही उत्पन्न कर दिया हो। कोई-कोई वीर कवच को धारण नहीं कर रहा था क्योंकि वह धीर-वीर अपने मन में उसको केवल भाररूप ही मान रहा था। कोई सुभट उस महा-कवच को धारण करता हुआ ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों उसने अपनी पासणाहचरिउ :: 71
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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