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________________ च्छुडुणावागय संझ-विलासिणि रंजिवि घर-पुरवर-णयरायर पवरावण-वण-सुरहर-पव्वय एत्थंतरि दुक्कउ तिमिरुक्करु दिवसु वि गउ तवणेण समाणउँ रवि विरह णलिणउँ कमिलाणउँ णहयर णिय णीडंतरे संठिय वेसहिँ गामीयण परिवंचिय वत्थ-पयत्थ-विहूसण संचिय चक्कवाय-पिय-विरहें पीडिय अरुणत्तण गुण-घुसिण-विलासिणी।। तरु-गिरि-दरि-सरि-सर-रयणायर।। तक्खणे विक्किरियहे वे सवगय।। अमुणिय-गइ णं महमइ-तक्करु।। णं तमरक्खस भएण पलाणउँ ।। धम्माहम्म-वियारु-विलाणउँ।। वायसारि णिग्गय उक्कंठिय।। चाड चर चोरइँ रोमंचिय।। हरिसिय मणि पूण्णालि पणच्चिय।। भूअ-पिसाचय-णिसायर-कीडिय।। घत्ता- एत्यंतरे आवेवि कसण-तण णिसि णिसियरि णिसियरहिँ पिय। णक्खत्त-दंत-पंतिहि-पयड भुअणभवणे णिसंक ठिय ।। 57 || 3/19 The figurative description of the black night. जलंतोरु दीवालि लीला भरती दिणाराइणामं रुसा संहरंती।। शीघ्र ही सन्ध्याकाल आ गया, ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों अरुणाभगुण वाली चन्दन (अलक्तक-आलता) लगाये हए कोई रूपाजीवा-विलासिनी ही घरों, पूरों, श्रेष्ठ-नगरों और आकरों तथा तरु. गिरि-कन्दराओं नदियों सरोवरों एवं सागरों को रिझाने के लिये नाव पर चढ़कर वहाँ आ पहुँची हो। उसी समय वहाँ श्रेष्ठ भवनवासी और व्यन्तर देव-देवियाँ विक्रिया-ऋद्धि द्वारा स्वर्ग से आ पहुँचे और (कर्त्तव्य कार्य करके) तत्क्षण वापिस लौट गये। इसी बीच गहन अन्धकार आ ढुका। उसके आने की आहट भी किसी को न मिली। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों कोई चतुर बुद्धिवाला चोर ही चुपके से आ घुसा हो। सूर्य के साथ-साथ दिन भी भाग गया, मानों अन्धकाररूपी राक्षस के भय से ही वह पलायन कर गया हो। सूर्य-विरह के कारण नलिन-पृष्प भी कुम्हलाने लगे हैं और धर्मअधर्म का विचार भी विलीन होने लगा है। नभचर (पक्षीगण) अपने-अपने नीड़ों में घुस गये हैं किन्तु उल्लूगण (वायसारि) उत्कण्ठित होकर बाहर निकल पड़े हैं। ग्राम्यजन वेश्याओं द्वारा ठगे जाने लगे हैं। चाड (कपटी), चरड (लुटेरे) एवं चोर रोमांचित (प्रफुल्लित) होने लगे हैं। वस्त्राभूषणादि तथा प्रसाधनादि पदार्थों से सुसज्जित होकर पुंश्चलियाँ तथा व्यभिचारिणियाँ हर्षित मन होकर नाचने लगी हैं। चक्रवाक-पक्षी प्रिया के विरह से पीड़ित होने लगे हैं और भूत-पिशाचादि निशाचर क्रीड़ाएँ करने लगे हैं। घत्ता- इसी बीच, कृष्ण वर्णवाला घोरान्धकार रूपी राक्षस, जो कि राक्षसिनियों एवं निशाचरों (चोरों) के लिये अत्यन्त प्रिय था, अपने नक्षत्र रूपी दन्त-पंक्तियों के रूप में प्रकट हुआ, जो भुवन एवं भवन में बिना किसी शंका के ही स्थिर हो गया। (57) 3/19 कृष्ण-रात्रि का आलंकारिक वर्णनजलती हुई बड़ी दीप-पंक्ति की लीला के भार से वह रात्रि, दिन के नाम को अत्यन्त रोषपूर्वक मिटाती हुई, 64 :: पासणाहचरिउ
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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