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________________ 1/21 Mother queen Vāmā devi becomes pregnant and gives birth to the infant (Hero of this Epic). जा वसइ समंदिरि वम्मदेवि हयसेण पियहो सुइणइँ कहेवि।। ता भव-परिभवण णिवारणाइँ आराहेवि सोलहकारणाइँ।। अज्जिवि तित्थयरहो गोत्त् णाम तणु-मण-वयणहि णिददलिवि काम्।। सम मणेण णिहालिवि जीवगामु तवतेएँ णिज्जिवि तवण-धामु।। परिउज्झेवि चउविह-कसाय विणिवारिवि विसयासा-विसाय।। णिक्खुत्तिवि पुव्वज्जिय दुहाइँ भुंजिवि दु-तीस-सायर सुहाई।। मेल्लिवि विमाणु लहु वइजयंतु हरि-हास-काससिय कुसुमयंतु।। कणयप्पहु णिज्जिय मयरकेउ धोरेय धवल रूवेण देउ।। वइसाह बहुल बीया दिणम्मि अवयरिउ परमजिणु तक्खणम्मि।। संचरइ गब्मे सरयब्मे जेम सिसिरयरु स मायहे तणए तेम।। सुर सग्गहो एविणु गब्मवासु णिवदेवी पणवेवि गय सवासु ।। तं दिवसु धरेवि णवमास जाम कय रयणविवि जक्खेण ताम।। पवराणए पुणु वि पुरंदरासु जिण ण्हवण वारिधुअ मंदरासु।। उयरत्थहो रुइ णीसरइ केम घणपिहिय बाल दिणयरहो जेम।। 15 एत्थंतरि पूसहो कसणवक्खे एयारसि दिणि वियलिय विवक्खे।। 10 1/21 पार्व प्रभु का गर्भ में आगमन और जन्म कल्याणकअपने प्रियतम राजा हयसेन के लिये अपने स्वप्न कहकर (तथा उनका सुखद फल सुनकर) वामादेवी जब अपने भवन में रह रही थी, तभी भव-परिभ्रमण का निवारण करने वाली सोलहकारण-भावनाओं की आराधना कर, तीर्थंकरगोत्र का अर्जन कर, काय, मन एवं वचन से काम-वासना का निर्दलन कर, समता रूप मन से जीव मात्र को देखकर अपने तप-तेज से सूर्य के तेज को जीतकर, चतुर्विध कषाय को दूर से ही छोड़कर, विषयों सम्बन्धी आशा एवं विषाद का विनिवारण कर, पूर्वार्जित दुःखों को काटकर, बत्तीस सागर तक सखादि को भोगकर शिव के हास्य और कांस्य के समान श्वेत पुष्पों वाले वैजयन्त-स्वर्ग के विमान को शीघ्र ही छोड़कर (सौन्दर्य में-) कामदेव को निर्जित कर देने वाला तथा धवल वृषभ के समान धवल रूप वाला कनकप्रभ नामका देव वैशाख बहुल कृष्ण द्वितीया के दिन तत्काल ही परम जिन के रूप में (वामादेवी की कोख में) गर्भस्थ हुआ। वह (देव का) जीव वामारानी के गर्भ में इस प्रकार संचरण करने लगा, जिस प्रकार शरदकालीन मेघों के भीतर सूर्य। देवगण स्वर्ग से गर्भगृह तक आये और राजा हयसेन एवं रानी वामादेवी को प्रणाम कर अपने-अपने स्थान पर चले गये। जिनेन्द्र के अभिषेक-जल से मन्दिर को पवित्र कर देने वाले पुरन्दर की आज्ञा से गर्भावतरण के दिन से लेकर 9 माह तक यक्ष-कुबेर ने (वाणारसी में) लगातार रत्नवृष्टि की। उस उदरस्थ भगवान् की कान्ति इस प्रकार निकल रही थी, जैसे मेघ से आच्छादित बाल-सूर्य की प्रभा ही हो। इसी बीच (समय के पूर्ण होते ही) पौषमास के कृष्णपक्ष के विपक्ष के विगलित होने पर एकादशी के दिन 24 :: पासणाहचरिउ
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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