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________________ ३४८ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज ५. जैन धार्मिक पर्व एवं महोत्सव १. नित्य मह-सामान्यतया धार्मिक पूजा अथवा पर्व के लिए 'मह' शब्द का व्यवहार होता है। जैन समाज में अनेक प्रकार के 'महों' का प्रचलन रहा था नियमित रूप से मन्दिर में पूजा करना 'नित्य मह' कहलाता है। पं० आशाधर ने अपने सागार धर्मामृत में 'नित्य मह' का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहा है प्रतिदिन अपने घर से लाए गए जल, चन्दन, अक्षत आदि के द्वारा जिनालय में जिन भगवान् की पूजा करना अथवा अपने धन से जिनबिम्ब, जिनालय आदि बनवाना अथवा भक्तिपूर्वक गाँव, मकान, जमीन आदि को शासन विधान के अनुसार दानस्वरूप प्रदान करना अथवा अपने घर में तीनों सन्ध्यात्रों को प्रर्हन्तदेव की आराधना करना और मुनियों को प्रतिदिन पूजापूर्वक आहार देना' नित्यमह' कहलाता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि 'नित्यमह' जैन पूर्जा-अर्चना के व्यापक सन्दर्भो में प्रयुक्त हुआ है। इसके अन्तर्गत, दैनिक पूजा के अतिरिक्त, मन्दिर बनवाना, भूमिदान देना आदि सभी प्रकार के धार्मिक कृत्य सम्मिलित हैं। इसके नन्दीश्वरपर्व, इन्द्रध्वज, सर्वतोभद्र, चतुर्मुख, कल्पद्रुममह, महामह आदि अनेक भेद भी स्वीकार किए जाते हैं । वराङ्गचरित के २२वें-२३वें सर्ग में 'मह' का भव्य वर्णन हुआ है। २. अष्टालिक मह (नन्दीश्वर पर्व)-पाशाधर के अनुसार भव्य जीवों के द्वारा 'नन्दीश्वर पर्व' में अर्थात् प्रतिवर्ष आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुन के शुक्लपक्ष के अष्टमी आदि आठ दिनों में जो निरन्तर रूप से विशेष जिन पूजा की जाती है वह 'अष्टाह्निक मह' कहलाता है । चन्द्रप्रभ महाकाव्य में इसका 'नन्दीश्वर पर्व' के रूप में वर्णन पाया है ।५ वराङ्गचरित में भी 'अष्टाह्निक मह' का उल्लेख पाया है। इस पर्व के अवसर पर राजा भी अपने परिवार सहित आठ दिन का उपवास रखते थे। आठों दिन जिनेन्द्र की पूजा-अर्चना की जाती थी। तदनन्तर जिनबिम्ब का विधिपूर्वक अभिषेक किया जाता था। वराङ्गचरितकार ने नन्दीश्वर पूजा का माहात्म्य बताते हुए कहा है कि 'अष्टाह्निक पर्व' में स्वर्ग के इन्द्र प्रतिवर्ष श्री नन्दीश्वर द्वीप में विराजमान कृत्रिम तथा अकृत्रिम जिन बिम्बों की विशाल पूजा का १. महीयते-पूज्यो भवति । -धर्मामृत (सागार), पृ० ७२ २. वही, ११.२५, पृ० ७२ ३. वराङ्गचरित, खुशाल चन्द्र गोरावाला, प० ३५१ ४. धर्मामृत (सागार), ११.२६, पृ० ७३ ५. चन्द्र०, ३.६० ६. अष्टाह्निकं शिष्टजनाभिजुष्टम् । -वराङ्ग०. २३.६४ ७. चन्द्र०, ३.६०-६१
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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