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________________ अर्थव्यवस्था एवं उद्योग-व्यवसाय ३३१ 'कार्षापण' नामक मुद्रा राजा बिम्बसार के समय में भी प्रचलित थी । संघ के नियमों को बनाते समय बुद्ध ने इसे एक 'स्टैण्डर्ड' 'मुद्रा' के रूप में मान्यता दी थी । मूलतः यह स्वर्ण मुद्रा रही थी किन्तु परवर्ती काल में इसका चांदी के रूप में भी प्रचलन होने लगा था । दशव कालिकचूर्णी के द्वारा एक तीतर का मूल्य एक 'कार्षापण' बताए जाने के कारण जगदीश चन्द्र जैन महोदय का मत है। कि यह मुद्रा ताम्बे की भी रही होगी । 3 उत्तराध्ययनसूत्र में 'कूट' (खोटे) 'कार्षापण' का भी उल्लेख आया हैं । 'कार्षापण' के लिए 'कर्ष' प्रयोग भी हुआ है। 'निष्क' तथा 'गाय' पारस्परिक विनिमय के भयतिकरण ने एक 'निष्क' को सौ 'पल' के तुल्य 'निष्क' का मूल्य एक सौ आठ 'पल' भी सम्भव था 15 'काकणी' (उत्तराध्ययनसूत्र में 'काकिणी' ) है ' रूप्यक' से अल्प मूल्य वाली मुद्रा रही होगी । उत्तराध्ययन के एक उल्लेख के अनुसार एक रुपये से अनेक 'काकरणी' भुनाई जा सकती थीं । १° प्रभयतिलकगरिण के अनुसार एक 'काकरणी ' बीस 'कर्पद' के तुल्य थी । १५ वस्तुओं में मिलावट तथा झूठे मापतौल का प्रयोग सामान्यतया व्यापारी माप तौल के व्यवहार में इमानदार होते थे । परन्तु वराङ्गचरित महाकाव्य में ऐसे भी कुछ व्यापारियों की ओर संकेत किया गया है कि जो वस्तुओं में मिलावट करते थे अथवा नकली वस्तुनों को असली वस्तु के रूप में बेचते थे । इस प्रकार के भ्रष्ट विक्रेता प्रायः तक (मठा) दधि (दही) क्षीर (दूध ) माप दण्ड भी रहे थे । माना है । ७ स्वर्ण-निर्मित १. जगदीश चन्द्र जैन, जैन श्रागम साहित्य में भारतीय समाज, पृ० १८७ २. Narang, Dvyāśraya, p. 214 ३. दशवेकालिक चूर्णी पृ० ५८ तथा जगदीश चन्द्र जैन, जैन श्रागम साहित्य में, पृ० १८६ ४. उत्तराध्ययन सूत्र, २०.४२ Narang, Dvayāśraya, p. 214 ५. ६. वही, पृ० २१४ ७. द्वया०, १५.६६ पर प्रभय० कृत टीका, पृ० २३३ निष्को हैम्नोष्टोत्तरं शतं पलं वा । द्वया०, १७.८४ उत्तराध्ययन सूत्र, ७.११ ८. ε. १०. वही, ११. कर्प दकविंशतिः काकणी । – द्वा०, १७.८८ पर कृत अभय० कृत टीका, पृ० ३८६
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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