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________________ १८६ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज तथा उच्छृखल युद्ध नीति पर प्रकाश डालते हैं। राज्य स्तर पर संकीर्ण युद्धनीति तथा युद्ध के प्रति उदासीनता का यह परिणाम निकला है कि सैनिक भी युद्ध को एक गम्भीर तथा संयमसाध्य वस्तु न मानकर साधारण घटना के समान समझने लगे। राजाओं की देखादेखी सैनिक भी अपनी पत्नियों को युद्ध-क्षेत्र में साथ ले जाते थे। अनेक प्रकार के भोगविलास, सलिल क्रीड़ा आदि शृङ्गारिक वातावरण सैनिकों के शौर्य तथा एकाग्र वृत्ति के लिए महान घातक सिद्ध हुए। सैनिक पड़ावों में वैश्याओं के अड्डों का लगना यह सिद्ध करता है कि राजा तथा सैनिक आदि युद्ध के अवसर पर भी रमणियों के साथ भोग-विलास की गतिविधियों को विशेष महत्त्व देने लगे थे। विदेशी आक्रमणकारी भारतीय सेना की इस निर्बलता को भली भांति जान चुके थे कि तथा इस कमजोरी का उन्होंने पूरा-पूरा लाभ उठाकर भारतीय सैनिक शक्ति को क्षीण करने की पूरी चेष्टा की है। हम्मीर महाकाव्य में वर्णित खिलजी नीति इसका एक ज्वलंत उदाहरण कहा जा सकता है। इस दृष्टि से कुछ राजपूतादि जातियों की सेना ने इस काल में भी अपना चरित्र ऊँचा उठाया हया था। अस्त्र-शस्त्रों की दृष्टि से भारतीय सेना एक समृद्ध तथा प्रगतिशील सेना के रूप में दृष्टिगत होती है । १४वीं शताब्दी में भारतीय सेना द्वारा यन्त्रों और अग्नि गोलों (बारूद के गोलों) से खाइयों को तोड़ना तथा दुर्ग के चारों ओर बनी खाई में गरम तेल डालकर शत्रुओं के दुर्ग-आक्रमण से रक्षा करना आदि यह सब सिद्ध करता है कि भारतीय सेना निरन्तर आधुनिकतम शस्त्रों तथा युद्ध-कलानों को युद्ध व्यवस्था में स्थान देती जा रही थी । संक्षेप में जैन संस्कृत महाकाव्यों के युद्ध वर्णन सम्बन्धी उल्लेख प्राचीन भारतीय सेना के संस्थागत इतिहास की मध्यकालीन पृष्ठभूमि को नवीन सूचनाओं से विशेष आलोकित करते हैं। इतिहासकारों द्वारा प्रदत्त अनेक संकेतपरक संभावनाओं का इनसे विशदीकरण हुआ है तो अनेक भ्रान्त धारणाएं निरस्त भी हुई हैं।
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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