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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
तथा मध्यकालीन ग्राम संगठन के उन दोनों स्वरूपों को समझना आवश्यक है जिसमें सर्वप्रथम ग्राम संगठन सामाजिक संगठन की मूल इकाई रहे किन्तु परवर्ती काल में इन पर राजतन्त्र का विशेष अंकुश लगा जिसके कारण 'ग्राम संगठन' का प्रीचित्य आर्थिक एवं राजनैतिक मूल्यों की दृष्टि से किया जाने लगा । परिणामतः 'महत्तर' - 'महत्तम' एवं 'कुटुम्बी' के पदों का प्रारम्भिक स्वरूप सामाजिक संगठन परक होने के बाद भी मध्यकाल में राजनैतिक व्यवस्था के अनुरूप राजकीय प्रशासनिक पद के रूप में परिवर्तित हो गया ।
महत्तर / महत्तम
'महत्' शब्द से तरप् प्रत्यय लगाकर 'महत्तर' शब्द का निर्माण हुआ है । इस तरप् प्रत्यय के प्राग्रह से ऐसी पूर्ण सम्भावना व्यक्त होती है कि 'महत्तर' किसी अन्य व्यक्ति अथवा पद की तुलना में बड़ा रहा होगा।' इस सन्दर्भ में अग्निपुराण में उल्लेख प्राया है कि पाँच कुटुम्बों वाले ग्राम तथा छठे 'महत्तर' की संगठित शक्ति को बड़े से बड़ा शक्तिशाली व्यक्ति पराजित नहीं कर सकता । इस प्रकार ग्राम सङ्गठन के सन्दर्भ में विभिन्न कुलों प्रथका कुटुम्बों के मुखिया 'कुटुम्बी' कहलाते थे तथा उन पांच-छ: कुटुम्बियों के ऊपर 'महत्तर' का पद था ।
जैन साहित्य में उपलब्ध होने वाले अनेक 'महत्तर' सम्बन्धी उल्लेख मिलते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि यह पद ग्राम संगठन से सम्बन्धित पद था । बृहत्कल्पभाष्य के एक उल्लेखानुसार किसी उत्सव-गोष्ठी के अवसर पर 'महत्तर', 'अनुमहत्तर', 'ललितासनिक', 'कटुक', 'दण्डपति' आदि राजकीय अधिकारियों के उपस्थित रहने एवं राजा की अनुमति से सुरापान आदि करने के उल्लेख प्राप्त होते हैं । इस उद्धरण से यह सिद्ध होता है कि 'महत्तर' ग्राम संगठन का सदस्य होता था तथा उसकी सहायता के लिए 'अनुमहत्तर' पद भी अस्तित्व में आ गया था । निशीथभाष्य के प्रमाणों के आधार पर डा० जगदीशचन्द्र जैन ने 'ग्राम- महत्तर' एवं 'राष्ट्र - महत्तर' दो पदों के अस्तित्व की सूचना दी है ।५ डा० जैन ने 'राष्ट्र - महत्तर' को 'राठौड़' ( रट्ठउड) के समकक्ष माना है । ६ इस सम्बन्ध में यह विशेष रूप से विचारणीय प्रश्न है कि यदि राष्ट्र महत्तर को 'राठौड़' का संस्कृत मूल माना जाता
१. तु० - ' प्रयमनयोरतिशयेन महान् । - शब्दकल्पद्रुम, भाग ३, पृ० ६५२ २. तु० – कुटुम्बैः पञ्चभिग्रामः षष्ठस्तत्र महत्तरः ।
देवासुरमनुष्यैर्वा स जेतुं नैव शक्यते ॥ - अग्निपुराण, १६५.११ बृहत्कल्पभाष्य, २.३५७४
३.
४. वही, २.३५७४-७६
५.
जगदीशचन्द्र जैन, जैन श्रागम साहित्य में भारतीय समाज, वाराणसी, १६६५, पृ० ६२ तथा तुल० निशीथमाष्य, ४. १७३५
६. वही, पृ० ६२