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________________ स्तुति प्रभुजी के निर्वाण कल्याणक दिन पे समाप्त हुई। कभी समय एवं क्षेत्र को ध्यान में रखकर स्तुति का समापन आदि किया - जैसे श्री महावीरस्वामी भगवान की स्तुति प्रभुजी के केवलज्ञान कल्याणक के दिन प्रारंभ करने की भावना थी अत: एक दिन आराम करके वैशाख शुक्ला दशमी के दिन स्तुति का प्रारंभ किया तथा ऋजुवालुका तीर्थ (श्री महावीर स्वामी भ. केवलज्ञान कल्याणक स्थल) में समापन करने की ख्वाहिश थी अत: स्तुति को धीरे धीरे (७) दिन में पूर्ण की तथा श्री मुनिसुव्रतस्वामी की स्तुति श्री मुनिसुव्रतस्वामी के ही जन्मादि कल्याणकों से पावन राजगृही तीर्थ में समापन करने की अभीप्सा थी अत: स्तुति को धीरे धीरे (८) दिन में समाप्त की। अंत में गिरियात्रा के पूर्व दिन प्रथम ग्रंथ 'सौम्यवदनाकाव्यम्' के विमोचन के पश्चात् श्री शिखरजी तीर्थ में नूतन भोमियाभवन में प्रशस्ति की पूर्णाहूति हुई। द्वितीय दिन श्रीसंघ के साथ यात्रा की । प्रत्येक स्तुति पुष्प को प्रत्येक परमात्मा के चरणों में समर्पित किया । अत एव ‘वृत्तिप्रशस्ति' में कहा है। तद्वितीयदिने यात्रां ससङ्घ: कृतवानहम् । अर्हद्भ्य: स्तुतिसूनानि समर्पितानि भावत: ।।५।। (पृ.-१७९) "भावत:”- स्तुतिपुष्पसमर्पण अत्यंत भाव से हुआ । उस समय का आनन्द अनन्य एवं अकथ्य है अत: उस अभिव्यक्ति का अधिक शाब्दिक स्वरूप देना नहीं चाहता। जिनेन्द्रस्तोत्रम् चतुर्विंशति अर्हत्परमात्मा की स्तुति स्वरूप स्तोत्र होने के कारण प्रस्तुत स्तोत्र के नामांकन में 'जिन' शब्द को पूर्वपद में रखा है । तथा मेरे परमोपकारी गुरुदेव कलिकुंड तीर्थोद्धारक पू. राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराजा के पावन अभिधान को ध्यान में रखकर उत्तरपद में 'इन्द्र' शब्द रखा है। वस्तुत: प्रस्तुत स्तोत्र का नाम पूर्व में 'जिनेश्वरस्तोत्रम्' रखा था । किन्तु 17
SR No.023185
Book TitleJinendra Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsundarvijay
PublisherShrutgyan Sanskar Pith
Publication Year2011
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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