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________________ दीक्षातिथि पर संकल्प स्वरूप यही स्तुतिरचना का निर्धार किया । स्थान में आकर मेरे परमोपकारी पू. गुरुदेव श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराजा को यह मनोकामना कही । गुरुदेव अत्यन्त आनन्दित हुए । लेकिन गुरुदेव ने कहा : “सामान्य स्तुति नहीं, विशिष्ट स्तुति की रचना करना ।” 'विशिष्ट' शब्द का तात्पर्य मैं समझ नही पाया । “विशिष्ट' मतलब क्या ? कुछ स्पष्ट नही हुआ । रात्रि को निन्द नहीं आई । यही 'विशिष्ट' की विचारणा में मेरा मन अतीव त्वरित गति से दौड रहा था - पूर्व में ‘सौम्यवदना' नामक ढ्यक्षरी काव्य की रचना हुई । तत्पश्चात् कलिकुंड चातुर्मास में 'जिनराजस्तोत्र' नामक एकाक्षरी काव्य की भी रचना हुई । अब एकाक्षर से भी 'विशिष्ट' क्या हो सकता है ? । लेकिन वचनसिद्ध पुरुष के मुख से जो उच्चारण होता है वह अन्यथा कैसे हो सकता है ? गहराई से मनन करने के बाद यह विचार आया - ‘जिनराज' एकाक्षर काव्य में व्यंजन का बंधन अर्थात् 'क' के श्लोक में 'क' से अतिरिक्त अन्य कोई व्यंजन का उपयोग नहीं करना यह नियमन था किन्तु स्वरों की तो पूर्णतया स्वतन्त्रता थी न ? अब स्वर का भी बंधन हो तो...? जैसे एक व्यंजन से अतिरिक्त अन्य व्यंजनों का अनुपयोग तथैव एक स्वर से अतिरिक्त अपर स्वरों का भी अप्रयोग...ऐसा क्यों नहीं हो सकता ?। द्वितीय दिन गुरुदेव से इस विषय में वार्तालाप हुआ । गुरुदेव ने स्तोत्र रचना में सानंद आशिष एवं संमति दी । मेरा मन बहुत हर्षित हुआ। माघ श्यामा पंचमी, १४-२-०९, शनिवार को ‘मवाना' गांव में प्रभु को प्रार्थना करके एवं वासक्षेप के माध्यम से गुरुदेव की आंतरिक आशिष के साथ मंगलाचरण का श्रीगणेश किया। जिनराजस्तोत्र' के मंगलाचरण में 'क' से प्रारंभ करके क्रमश: वर्णमाला थी । यहाँ व्यत्यय से अर्थात् वर्णमाला का चरम वर्ण 'ह' से प्रारंभ करके पश्चानुपूर्वी से क्रमश: वर्णमाला रखी । एक स्वर का काव्य होने के कारण 15
SR No.023185
Book TitleJinendra Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsundarvijay
PublisherShrutgyan Sanskar Pith
Publication Year2011
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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