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________________ ३३) बिमार बने हुए साधु, कोई अन्य सार्थ आकर मेरी सेवा-सुश्रुया करे ऐसी मनमें भी विचार न लावे और कोई निरोगी साधु कर्म निर्जरा के भाव के कारण उनकी सेवा-वैचावच्च करे तो वह उसमें आसक्त-गृद्ध न बने। ३४) उपवास वाले व्यक्ति को आहार के पास भी जाने की भी मनाई करने में आई है। ३५) जब शरीर बिमार पडे, व्याधिग्रस्त बने, तब तो विशेष रुप से 'उणोदरी तप' करना चाहिए। . ३६) भगवान महावीर, शीतकाल में छाँव में और उष्ण काल (गीष्म) में उत्कृष्ट आसन में धूप में आतापना लेकर ध्यान करते थे। ३७) भगवान महावीर उत्कट, गोदोहिका, विरासन आदि अवस्थाओ में मुख विकारादि चंचल चेष्टाओ को छोडकर उर्ध्व-अधो और तिर्छा लोक में रहे हुए जीव तथा परमाणु के द्रव्य-गुण-पर्याय आदि रुपो का ध्यान करते थे। साधु उसके पूर्व गृहस्थाश्रम के अलि परिचित गृहस्थो के घर पर गोचरी न जाए । (विशेष शासन प्रभावना या दिक्षा प्रतिबोध जैसे अपवादिक कार्यो में जयणा) ४०) साधु-साध्वीजी धोये हुए कपडो को दोरी/रस्सीपर नहीं बल्कि नीचे ही अचित भूमि पर सूकावे । ४१) तीन प्रकार के पात्रे बताने में आए है। १. तुंबडे के २. काष्ट के ३. मीट्टी के ४२) सुई, कैची, कान-दांत खोतरणी, नेईल कटर आदि वस्तु साधु . जब उसके मालीक गृहस्थो को वापीस दे तो सीधे हाथ में न दे बल्कि नीचे जमीन पर रखकर देवें । ३९)
SR No.023184
Book TitleAgam Ke Panno Me Jain Muni Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvallabhsagar
PublisherCharitraratna Foundation Charitable Trust
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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