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________________ ४४७) कर्मरज स्त्री कीचड और जल से अलिप्त, श्रुतरत्न रुप दीर्घनाल युक्त, पांच महाव्रतरुप कर्णीकायुक्त, उत्तर गुण गुण रुप परागयुक्त आध्यात्मिक रस और आनंद रुपी मकरंद सुगंध के कारण भावित श्रावको रुप भंवरो से धीरा हुआ, तीर्थंकर रुप सूर्य के केवल ज्ञान रुप तेज से विकसित, श्रमण गण रुप हजारो पंखुडीयो वाले पदम्कमल' रुप संघ का सदा मंगल हो । ४४८) तप प्रधान संयम रुप मृगचिन्ह से अंकित, अक्रियावादी आदि विविध मतमतांतर रुप राहु ग्रह से ग्रसित न होनेवाला, सदा निराबाध निर्मल-निरतिचार दर्शनमोह रुपी मल से रहीत, सम्यकत्व रुप चांदनी से सुशोभित ऐसे चंद्ररुपी संघ की सदा जय हो। ४४९) अन्य मतमतांतर रुप ग्रह प्रभा को निस्तेज करनेवाला, खुद के तप-संयम के तेज से देदीप्यमान, इपान रुप प्रकाश फैलाकर अज्ञान अंधकार को हटानेवाला, विषय-कषाय रुप अवगुणो को दूर करने में उपशम प्रधान 'सूर्य' रुपी संघ का सदा कल्याण हो। ४५०) मूल-उत्तरगुण की-प्रवाह रुप भरती आने से क्षमा, श्रध्दा, संवेद आदि की पानी रुप वृध्दि करनेवाला, स्वाध्याय और शुभयोग रुपी मगरमच्छ से युक्त, परिषह और उपसर्गों में भी निष्कंप निश्चल (मर्यादा न छोडनेवाला) आत्मीक सद्गुरु रुप असंख्य रत्नराशियों का भंडार गंभीर ऐसे ऐश्वर्ययुक्त विशाल समुद्र' रुपी संघ का सदा कल्याण हो। ४५१) संघरुप सुमेरु में सम्यगदर्शन रुप श्रेष्ट वज्रमय, चीरकालीन, ' मजबूत और गहरी आधार शिला है, वह शिला शंका-कांक्षारुप विवर से रहित है । यह संघ रुपी मेरु को विविध यम-नियम रुप सोने का शिलातल है । जो उज्वल चमकते चिंतन के शुभ
SR No.023184
Book TitleAgam Ke Panno Me Jain Muni Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvallabhsagar
PublisherCharitraratna Foundation Charitable Trust
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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