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________________ ४२०) जिसने अपने आत्मा को जीत लीया, उसने जगत को जीत लिया और वश किया । ४२१) मन की इच्छाएँ, अपेक्षाएँ आकाश जितनी अनंत है, पूरी पृथ्वी तमाम पदार्थ उसे पूरी करने के लीए समर्थ नहीं है । ४२२) अच्छे कल्याण मित्रो की मित्रता को, ठुकराने वाला और अति प्रिय व्यक्ति के पाप (अनाचार) को प्रगट करनेवाला - अविनित, अयोग्य व्यक्ति है । ४२३) जो बहुश्रुतवान् मुनि हो, उसें भी तप में यत्न करना चाहिए । ४२४) जो गृहस्थ सत्य धर्म जानने के बाद भी हिंसा - आरंभ और परिग्रह न छोडे उसे उपदेश देना व्यर्थ है । ४२५) जो कामनाओ से मुक्त होते नहीं है, वह अतृप्ति की अग्नि में जलकर वृध्दत्व और मृत्यु को प्राप्त करते है । ४२६) जो निम्न मध्यम वर्ग और दरिद्र घरो में भी बिना खेद कीये गोचरी जाते है वह सच्चे मुनि है, सुसाधु है । ४२७) जीस प्रकार स्निग्ध आहार ब्रह्मचर्य के पतन का कारण है, उसी प्रकार अति मात्रा में कीया हुआ आहार भी ब्रह्मचर्य के पतन का कारण है । ४२८) मेरा सब कुछ बराबर चल रहा है, तो मुझे शास्त्राभ्यास करके क्या करना ? ऐसा सोचनेवाला, सुबह से शाम तक गोचरी वापरने वाला, दिन में बिना कारण निद्रा करनेवाला, गुरु एवं आचार्य की चिंता नहीं करनेवाला (उनका ध्यान ) / ख्याल नही रखने वाला), बिना पूंजे-प्रमाजे बैठनेवाला, अशुध्द पडिलेहन करनेवाला 'पापश्रमण' है - ऐसा जिनेश्वरो ने कहा है ।
SR No.023184
Book TitleAgam Ke Panno Me Jain Muni Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvallabhsagar
PublisherCharitraratna Foundation Charitable Trust
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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