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________________ २९०) एक दिन की गोचरी (सूकी वस्तु आदि) वहोराकर दुसरे दिन वापरने से तथा, रात्री में (सूर्यास्त बाद) बनी हुई वस्तु दिन में वापरने से भी रात्री भोजन का दोष लगे । २९१) जो अच्छी रीत से कही गई हितशिक्षा की भी अवगणना करते है, जो आगमादि श्रुतज्ञान को अप्रमाणित करते है, जो अनाचार की प्रशंसा करते है वह 'परमाधामी असुर' के रुप में उत्पन्न होते है। २९२) जो साधु-साध्वी परपाखंडी की प्रशंसा करे, उनके अनुकूल शब्द बोले, उनके शास्त्र को प्ररुपे, विशेष से श्रवण करे, विर्ध्वानो की सभा में उनकी, या उनके शास्त्र के गुणगान करे वह जीव मरकर "परमाधामी असुर" के रुप में उत्पन्न होती है । २९३) सर्व आवश्यक क्रिया में काल का उल्लंघन करनेवाला, गुरु के उपकरणो का, परिभोगी, परिक्षा कीये बिना दिक्षा देनेवाला, बिना समयें यहाँ-वहाँ घुमनेवाला, मंत्र-तंत्र के प्रयोग करनेवाला, दिन को निद्रा लेनेवाला, साधु कुशील है, कुसाधु - कुगुरु है उनका त्याग करना चाहिए । २९४) साधु को साध्वीयाँ / श्राविकाएँ १३ हाथ दूर रहकर वंदन करे । यह उत्सर्ग मार्ग है । २९५ ) संयम की विराधना करके जो यदि तीर्थयात्रा होती हो, तो ऐसी तीर्थयात्रा करने का भी साधु-साध्वीजीओ को निषेध है । २९६) आत्महित करते हुए, जो यदि शक्य हो तो परहित करना, लेकिन आत्महित और परहित दो में से एक करना हो तो मात्र आत्महित करना । (विशेष - शासन प्रभावना भी स्व संयम आराधना को गौण करके नहीं करनी है )
SR No.023184
Book TitleAgam Ke Panno Me Jain Muni Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvallabhsagar
PublisherCharitraratna Foundation Charitable Trust
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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