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________________ 'अरुहंताणं' यानि जीसके कर्मबीज क्षीण हो जाने से फीर भवांकुर की उत्पत्ति होने वाली नही है इस प्रकार के पाठ भी आगम में मीलते है । १२३) निर्वाण साधक योग को साधे और जो साधु संयम करनेवाले को सहाय करे और सर्व प्राणीयों में समभाव रखे - वह भावसाधु है । १२४) पडिलेहण (प्रतिलेखन) की क्रीया में प्रमादी बननेवाला छकाय का विराधक बने । - १२५) वो ही सत्य है, शंका रहित है, जो जिनेश्वर देवो ने कहा है ऐसे भाव हृदय में दृढरूप से धारण करने से जीव कांक्षामोहनीय कर्म को तोड़ता है। १२६) दोषित गोचरी व्होराने - वापरनेवाला भी अगर जो उसके दोष का स्वीकार करता हो, उसकी आलोचना- प्रायश्चित लेता हो उस दोषित के प्रती उसके मन में पश्याताप हो तो वह जीव आराधक है। (१२७) साधु-साध्वीजीओ को अतिकान्त भोजन का निषेध है। १. कालतिक्रान्त यानि - सूर्य उगने पहले गोचरी व्होरानी । २. क्षेत्रातिक्रान्त - नवकारशी की बहोराई हुई गोचरी शाम को चोविहार के वक्त वापरनी । ३. मार्गातिक्रान्त-जिस स्थान से गोचरी वहोराई उससे ६ किमी. दूर जाकर गोचरी वापरनी । ४. प्रमाणातिक्रान्त- ३२ कवल से ज्यादा आहार करने । प्रश्न - परिणाम कृत पच्चखाण यानि क्या ? उत्तर द्रव्य, घर, कवल, भिक्षा, अभिग्रह आदि की धारणा करके कीया गया पच्चखाण यानि परिणामकृत पच्चखाण । - २०
SR No.023184
Book TitleAgam Ke Panno Me Jain Muni Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvallabhsagar
PublisherCharitraratna Foundation Charitable Trust
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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