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________________ ४. अपायानु प्रेक्षा : कषायो और विषयो के दुष्परिणाम : दृष्ट फल का चिंतन । १०२) साधु-साध्वीयों को आषाढ, आसो, कार्तिक और चैत्र महिने की कृष्णपक्ष की एकम (वदी) एकम को स्वाध्याय नहीं करना (असज्जाय) है। १०३) मोह रुप भाव रोग की चिकित्सा- विगई त्याग, निर्बल आहार, उणोदरी, आयंबिल तप, कार्योत्सर्ग, भिक्षाचर्या, वैयावच्च, विचरण, मांडली में प्रवेश करने से होती है। १०४) बेइन्द्रीय जीवो का आरंभ हिंसा करनेवाले जीव को रसनेन्द्रिय + स्पशेन्द्रीय के सुख प्राप्त होते नहीं है। १०५) चर्तुविध संघ का और देवताओ का अवर्णवाद (निंदा) करनेवाला जीव दुर्लभ बोधिपणे को प्राप्त करता है। १०६) कषायी जीव को पर्याय, परिवार, श्रुत, तप, लाभ और पूजा सत्कार भी अहित, अशांती, और अशुभ परंपरा के लिए होते है। १०७) जो व्यक्ति खमाकर उपशांत कीये हुए कलहो को पुन: उदीरता है (उत्पन्न) करता है, वह पापात्मा जानना । १०८) गमना गमन में विहार करके पहोंचे तब, सोने से पहेले, उठने के बाद, रात्री में स्वप्न दर्शन बाद, नाव के द्वारा नदी पार करने के बाद साधु-इर्या पथिकी प्रतिक्रमण यानी इरियावही - कार्योत्सर्ग करे। १०९) प्राणी वध-मृषावाद=अदतादान- मैथुन-परिग्रह में अन्युन वध '१०० उच्छवास' प्रमाण कार्योत्सर्ग करने का विधान है।
SR No.023184
Book TitleAgam Ke Panno Me Jain Muni Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvallabhsagar
PublisherCharitraratna Foundation Charitable Trust
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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