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________________ ६२ * पार्श्वनाथ चरित्र * प्रज्वलित ज्वालासे भयङ्कर दीखते हुए इस संसार रूपी वनमें बाल-मृगको भाँति प्राणियोंको किसकी शरण हैं? किसीकी नहीं।” इस प्रकार संवगेका रङ्ग चढ़नेसे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और मोहनीय कर्मोंका क्षयोपशम होकर उनको अवधिज्ञान उत्पन्न हो आया। फिर तो उन्होंने अपने पुत्र महेन्द्रको राज्यपर बैठाकर आप भद्राचार्य गुरुके पास जाकर दीक्षा ले ली । क्रमसे उन्होंने ग्यारह अंग और चौदह पूर्व सीख लिये । फिर गुरुकी आज्ञा ले निर्मल, निरहङ्कार, शान्तात्मा और गौरव - रहित होकर वे राजर्षि एकलविहारी और प्रतिमाधर होकर गाँवमें रातभर और शहरमें पाँच रात रहने लगे। शत्रु-मित्रमें समान वृत्तिवाले और पत्थर - सोनेमें तुल्य बुद्धि रखनेवाले उन महात्माको क्या वस्तीमें, क्या उजाड़ मैदानमें, क्या गाँवमें, क्या नगरमें-कहीं भी प्रतिबन्ध नहीं रहा । वे महीने, दो महीने, तीन महोनेका पारणा करते हुए क्रमसे बारह मासका पारणा करने लगे । इस प्रकार उग्र तपसे नाना लब्धियाँ उत्पन्न हुई और उन पुण्यात्मा की देह धानकी भूसीकी तरह हलकी हो गयी। उस समय उन्हें चौथा मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न हुआ । एक दिन वे अरविन्द मुनि अष्ठापदको यात्रा करने चले | राह में जाते-जाते व्यापारके लिये परदेश जाता हुआ सागरदत्त नाम सार्थवाह मिला । सागरदत्तने मुनीश्वरसे पूछा, “आप कहाँ जायेंगे ?” मुनिने कहा, " अष्टापदपर भगवान्की वन्दना करने जाऊँगा ।" सार्थपतिने पूछा – “महाराज ! पर्वतपर कौनसे
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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