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________________ ५६ * पार्श्वनाथ चरित्र * नगरमें बाजा बजाते हुए घुमाया और उसकी ख़ब मिट्टी ख़राब की। इसके बाद ब्राह्मण, बालक, स्त्री, तपस्वी और रोगी चाहे जो अपराध कर दें; पर उनकी जान नहीं लेना, बल्कि उसे और दण्ड ही देना न्यायोचित है । यही सोचकर उसे नगरसे बाहर निकाल दिया और राजपुरुष अपने स्थानको चले गये । इसके बाद जंगलोंमें अकेला भटकता हुआ वह दुराचारी कमठ सोचने लगा, “मेरे भाईने ही मेरी इस तरह मिट्टी ख़राब की, इसलिये मैं ज़रूर उसकी जान ले लूँगा ।" ऐसा विचार रखते हुए भी वह खाने-पीने एवं सब तरहसे लाचार होनेके कारण मरुभूतिकी कुछ भी बुराई नहीं कर सका। कुछ दिन बाद वह एक तापसके आश्रम में पहुंचा और वहाँ शिव नामक एक मुख्य तपस्वीको प्रणाम कर अपना दुखड़ा कह सुनाया । अनन्तर उससे तापसी दीक्षा ले, पर्वतपर जाकर तप करने लगा। साथ ही तापसोंकी सेवा भी करने लगा । इधर अपने बड़े भाई के परिणामकी बात सुनकर मरुभूतिको किसी तरह चैन नहीं पड़ता था । जैसे वृक्षके कोटर में लगी हुई आग भीतर हो भीतर जला करती है, वैसेही वह भीतर ही भीतर जलने लगा । एक दिन कुछ लोगोंने आकर कहा कि कमठने शिव तापससे दीक्षा ले ली है और वह जंगलमें पञ्चाग्नी तपश्चर्या कर रहा है। यह सुन मरुभूतिने सोचा, कि विपाकमें क्रोधका मूल बड़ा भयङ्कर होता है । कहा भी है कि सन्तापको देनेवाले, विनयका नाश करनेवाले, मित्रताको नष्ट करनेवाले, उद्वेग उत्पन्न
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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