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________________ * सप्तम सर्ग * ४४० 1 यह सुन अभयंकरने कहा, – “तुम लोगोंके पास नाम मात्रके लिये भी कुछ है या नहीं ?” ग्वालेने कहा, “हां, मेरे पास पांच कौड़िये हैं । यह सुन अभयं करने कहा, "अच्छा, तु उन कौड़ियोंके पुष्प ले आ और भावपूर्वक जिनपूजा कर।" यह देखकर दूसरा सेवक सोचने लगा- “ इसके पास तो इतना भी है, पर मेरे पास तो कुछ भी नहीं है ।" यह सोचकर वह दुःखित होने लगा । इसके बाद अभयंकर उन दोनोंको लेकर गुरु वन्दन करने गया। वहां गुरु महाराजका धर्मोपदेश सुनते हुए प्रत्याख्यान करनेवाले किसी मनुष्को देखकर उस सेवकने गुरुसे पूछा कि इसने यह क्या किया ? गुरुने कहा - "हे भद्र ! आज इसने पौषध किया है । उसीका यह प्रत्याख्यान ले रहा है । यह सुनकर उसने उपवासका प्रत्य. ख्यान लिया। इसके बाद वे दोनों अपने मालिकके साथ घर लौट आये । भोजनका समय होनेर उपवास करनेवालेने थालीमें अपना अन्न परोसना लिया, किन्तु भोजन न कर वह द्वारके पास खड़ा रहकर सोचने लगा, -"यदि सौभाग्यवश कोई मुनि यहांसे आ निकले, तो मैं उन्हें यह भोजन दान कर दूं । इसे दान करनेके लये मैं पूर्ण अधिकारी हूँ, क्योंकि मैंने इसे अपने परिश्रमके बदलेमें लिया है ।" जिस समय वह यह बातें सोच रहा था, उसी समय वहाँ एक मुनि आ पहुंचे। उनके आते ही उसने वह सब भोजन मुनिको दे दिया। सेवकका यह कार्य देखकर अभयंकर सेठ को बड़ा ही आनन्द हुआ। उसने उस सेवकके लिये फिरसे भोजन
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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