SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 448
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * षष्ठ सर्ग * ४०१ है । इसमें दीन जनोंको दान देनेका भी अवसर मिलता है । इसके मुकाबले मुनिधर्म कोई चीज नहीं।” नमिराजाने कहा"नहीं, ब्रह्मदेव ! यह तुम्हारी भूल है। गृहस्थ धर्म सावध होनेके कारण राईके समान छोटा है और मुनिधर्म निरवद्य होनेके कारण मेरु पर्वतके समान बड़ा है ।" इन्द्रने कहा - "ऐश्वर्य भोग करनेका जो अवसर मिला है, उसे इस प्रकार क्यों खो रहे हैं ? पहले ऐश्वर्य भोग कोजिये, बादको संयम लीजियेगा। मुनिने कहा"ऐश्वर्य और भोगसे इस जीवको कभी तृप्ति होती ही नहीं । भोगके बाद संयम ग्रहण करनेका अवसर कभी मिल हो नहीं सकता ।" इस प्रकार इन्द्रने अनेक बातें कहीं, किन्तु नमिराजा अपने व्रतसे लेशमात्र भी विचलित न हुए । यह देखकर इन्द्रने अपने प्रकृत रूपमें उपस्थित होकर कहा - " हे महात्मन् ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ । आप धन्य और कृत-कृत्य हैं । आप महानुभाव हैं। आपका कुल भी प्रशंसनीय है क्योंकि आपने इस संसार कात्रणवत् त्याग किया है । इस प्रकार नमस्कार, स्तुति और तीन प्रदक्षिणा कर इन्द्र देवलोकको चले गये और राजर्षि नमि निरतिचार पूर्वक चारित्रका पालन करने लगे । कुछ दिनोंके बाद कर्मक्षय होनेपर उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ एवं अन्तमें उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया 1 मदनरेखा साध्वोने भी चारित्रका पालन कर मोक्ष प्राप्त किया । जो लोग मदनरेखाकी भांति अखंड शीलका पालन करते २६
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy