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________________ * षष्ठ सर्ग असंबद्ध क्रिया देखकर मणि प्रभने कहा,-"जब देवता ही ऐसा विरुद्धाचरण कर रहे हैं, तब औरोंको क्या कहा जाय ? पहले चार ज्ञानके धारण करनेवाले और रम्य चारित्रसे विभूषित मुनिको प्रणाम करना चाहिये था; किन्तु इस देवने पहले एक स्त्रीको प्रणाम किया। यह विरुद्धाचरण नहीं तो ओर क्या है ?” मणिप्रभकी यह बातें सुनकर वह देव उसे जवाब देना चाता ही था, कि उतनेमें मुनिराज बोल उठे। उन्होंने कहा-“हे मणिप्रभ ! तेरा यह आक्षेप अनुचित है। इस देवको इसके कार्यके लिये उपालम्भ नहीं दिया जा सकता। मणिरथ राजाने मदनरेखापर आसक्त हो जिस समय युगवाहुकी हत्या की थी उस समय मृत्यु शय्यापर पड़े हुए युगबाहुको मदनरेखाने ही कोमल शब्दोंमें जिन धर्मका उपदेश दिया था और उसी धर्मके प्रभावसे युगवाहु पांचवें देव लोकमें देव हुआ। वही यह है और मदनरेखा इसकी धर्मगुरुणी है। इसीलिये इस देवने प्रथम इसे प्रणाम किया है। कहा भी है कि जो यति या गृहस्थ किसीको धर्ममें लगाता है, वही सद्धर्म दानके कारण उसका गुरु कहलाता है। इसके अतिरिक्त जो सम्यक्त्व दे, उसके लिये यही समझना चाहिये कि उसने शिवसुख दिया है। इस उपकारके समान और कोई उपकार ही नहीं है।” मुनीश्वरकी यह बातें सुन मणिप्रभको जिन धर्मके अद्भुत सामर्थ्यका ज्ञान हुआ और उसने उस देवसे क्षमा प्रार्थना की । उस समय उसने मदनरेखासे कहा-“हे भद्रे ! तुझे किसी वस्तुफी अभिलाषा हो तो सूचित कर, मैं उसे पूर्ण
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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