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________________ -षष्ठ सग. "शौचानां परमं शौच, गुणानां परमो गुणः। प्रभाव महिमा धाम, शीलमेकं जगत्तये ॥" अर्थात्-“पवित्रतामें परम पवित्र शील है, गुणोंमें परम गुण शील है और तीनों लोकमें प्रभाव तथा महिमाका धाम कोई वस्तु हो, तो वह केवल शील ही है।" "जवो हि सप्तः परमं विभूषणं, भतांगनायाः कृशता तपस्विनः। द्विजस्य विद्यष मुनेस्तथा क्षमा, शीलं हि सर्वस्य जनस्य भूषणम् ॥" अर्थात्-“अश्वका उत्तम भूषण वेग है, स्त्रीका उत्तम भूषण उसका पति है, तपस्वीका उत्तम भूषण कृशता है, ब्राह्मण का उत्तम भूषण विद्या है और मुनिका उत्तम भूषण क्षमा है, किन्तु शील तो सभी प्राणियोंका उत्तम भूषण है। इस शीलकी नव वाड़-मर्यादायें बतलायी गयी हैं। वे इस प्रकार हैं : (१) वसति–उपाश्रय-अर्थात् जिस स्थानमें स्त्री रहती हो या जिस स्थानके पास स्त्रोका वास हो उस उपाश्रयका मुनिको त्याग करना चाहिये। (२) कथा-स्त्रीसे बात चीत न करनी चाहिये। (३) निसिजा-जिस आसनपर स्त्री बैठी या सोई हो, उस आसनका दो घड़ीके लिये त्याग करना चाहिये। (४) इन्द्रिय-स्त्रियोंके अंगोपाङ्ग या इन्द्रियोंको ध्यानपूर्वक न देखना चाहिये। उत्तराध्यन सूत्रमें भी कहा गया है कि स्त्रोका ध्यान करनेसे अर्थात् उसे मनमें लानेसे चितरूपी दीवार मलीन हुए बिना नहीं तो।” इसलिये स्त्रीसे बातचीत करना या उसके अंगोपाङ्ग देखना ब्रह्मचारीके लिये सर्वथा वर्जनीय है।
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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