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________________ * षष्ठ सगे * इस दृष्टान्तका तात्पर्य यह है :-"दत्तको सद्गुरू समझना चाहिये। पांच वोहिके दाने पांच महाव्रत समझना चाहिये। जो प्राणी पंच महाव्रत ग्रहण कर उन्हें त्याग देते हैं, वे उज्किताकी तरह दुःखी होते हैं और इस असार संसारमें गोते लगाया करते हैं। जो लोग व्रत लेकर उसकी बिराधना करते हैं, वे भी दूसरी बहुकी तरह कष्ट पाते हैं। जो लोग गुरुकी आज्ञानुसार महाव्रत ग्रहण कर निरतिचारपूर्वक उसे पालनेकी चेष्टा करते हैं, वे रक्षिकाकी भांति सुखी होते हैं और जो महाव्रत ग्रहण कर उसको वृद्धि करते हैं, वे रोहिणीकी भांति सर्वत्र महत्व प्राप्त करते हैं, इसलिये हे महाभाग! तुझे पंच महाव्रत ग्रहण कर उनकी वृद्धि करनी चाहिये ।” इस प्रकार विजय सुनि व्रत अंगीकार कर शुभ ध्यानमें तत्पर हो, सम्यक् प्रकारसे संयम पालते हुए गुरुके साथ विचरण करने लगे। कुछ दिनोंके बाद उनकी योग्यता देखकर शुरुमहाराजने उन्हें आवार्यके पदपर स्थापित किया और स्वयं संमेत शिखर पर जा, अनशन कर मोक्षपद प्राप्त किया। ___अनन्तर विजयसूरि अपने शिष्योंको पढ़ाते और धर्मोपदेश देते हुए संसारमें विचरण करने लगे। बहुत दिनोंके बाद जब वे शास्त्राभ्यासके श्रम और विविध प्रश्नोंके उत्तर देनेके कारण क्लान्त हो उठे, तब वे अपने मनमें कहने लगे-"अहो ! उन मुनियोंको धन्य है, जो अनपढ़ हैं और प्रश्न तथा शास्त्रार्थकी चिन्ता न होनेके कारण आनन्दपूर्वक दिन बिताते हैं। वास्तवमें
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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