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________________ ३४२ * पार्श्वनाथ चरित्र # मानरूप पर्वतसे दुर्गम, माया प्रपंच रूपी मगरोंसे युक्त, लोभरूपी आवर्तीसे भयंकर, जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, शोक और दुःखरूपी जलसे परिपूर्ण, साथ ही इन्द्रियेच्छा रूपी महावात से उत्पन्न हुई। चिन्ता रूपी उर्मिओंसे व्याप्त — ऐसे इस अपार संसार सागर में प्राणियोंको मूल्यवान महारत्नकी भांति मनुष्य जन्म मिलना परम दुर्लभ है। जम्बूद्वीप, धातकी खण्ड और पुष्करार्ध - यह मिलकर ढाई द्वीप होते हैं। इसमें पांच महाविदेह, पांच भरत और पांच ऐरवत - यह पन्द्रह कर्म भूमि कहलाते हैं । इनमें से पांच महाविदेहमें एक सो साठ विजय हैं। यह एक सौ साठ विजय और पांच भरत तथा पांच ऐरवत मिलाकर एक सौ सत्तर कर्मक्षेत्र होते हैं । इनमें से प्रत्येक क्षेत्रमें पांच खण्ड अनार्यो के तथा छठा खण्ड आर्यमूमि होता है । यह आर्यभूमि भी प्राय: म्लेच्छादिकोंसे भरी हुई होती है । मध्य किंवा छठे खण्डमें भी धर्मसामग्री के अभाव वाले अनार्यदेश बहुत होते हैं । आर्यदेशमें भी सद्वंशमें जन्म, दीर्घायु, आरोग्य, धर्मेच्छा और सद्गुरुका योगयह पांच चीजें मिलना बड़ा कठिन है। पांच प्रमाद के स्तंभ रूपी मोह और शोकादि कारणोंसे पुण्यहीन प्राणी मनुष्य जन्म मिलनेपर भी अपना हित समझ या साध नहीं सकते । हितकारी बातें सुननेपर भी धर्म की ओर शायद ही किसीकी प्रवृत्ति होती है, क्योंकि सभी सीपों में मेघका जल पड़नेपर वह मुक्ताफल नहीं हो जाता । इसलिये फलकी इच्छा रखनेवाले लोगोंको सुखके हेतुरूप धर्मकी ही सदा आराधना करनी चाहिये ।”
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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