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________________ २५२ * पाश्वनाथ-चरित्र * राजाकी आज्ञासे मन्त्रीने अपने पैरके अंगूठमें एक डोरी बांधी और उसे पुत्रके हाथम देकर कहा कि जब तुझे कोई सन्देह पड़े या कोई बात समझ न पड़े, तब इस डोरीको हिलाना। इस तर संकेत पूर्वक उसने अपने पुत्रको यथेष्ट शिक्षा दी और उसे नीति शास्त्रमें पारंगत बना दिया। एक दिन पढ़ाते समय नोतिशास्त्रमें यह श्लोक आया : "दान भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवंति वित्तस्य । यो न ददाति न भुक्तं, तस्य तृतोया गतिर्भवति ॥" अर्थात्---“दान, भोग और नाश, यही तीन धनकी गति है। जो धन दान किंवा भोगके काममें नहीं लाया जाता उसकी तीसरी गति अर्थात् नाश होता है। यह श्लोक सुनकर मन्त्रीपुत्र डोरी हिलाने लगा। इससे उसके पिताने पुनः उसे वह श्लोक समझाया, किन्तु मन्त्री पुत्रको इससे सन्तोष न हुआ, अतएव उसने पुनः डोरी हिलायी। यह देखकर मन्त्री कुछ रुष्ट हुआ। उसने अन्यान्य विद्यार्थियोंको उसो समय छुट्टी दे दी और अपने पुत्रको एकान्तमें बुलाकर कहा-“हे वत्स ! समुद्र जैसे शास्त्रको पार करनेके बाद गोष्पद समान इस सुगम श्लोकमें तू मूढ़ क्यों बन गया? इसमें ऐसी कौनसी बात है, जिसके कारण तू इस प्रकार चकरा रहा है और बारम्बार समझानेपर भी तुझे ज्ञान नहीं होता?" पिताकी यह बात सुन पुत्रने कहा-“पिताजी ! आपने धनकी जो तोन गति बतलायी, वे मेरी समझमें नहीं आती। मुझे तो केवल दान और नाश यही दो गतियां दिखायी
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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