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________________ * तृतीय सर्ग ** २३१ एक सदमित्रके नाते वह चेष्टा न करता तो शायद ही यह लोग इस तरह सन्मार्गपर आते । शास्त्रमें कहा है कि : "पापान्निवारयति योजयेत हिताय । गुह्यं च गूहति गुणान् प्रकटी करोति ॥ आपद्गतं च न जहाति ददाति काले । सन्मित्र लक्षणमिदं प्रवदंति संतः ॥” अर्थात् -- "पापसे रोकना, हितमें लगाना, गुह्यको गुप्त रखना, गुणों को प्रकट करना, विपत्ति में दूर न भागना और आवश्यकता पड़ने पर सहायता करना यह सन्मित्रका लक्षण है।” भद्रकने भी इस समय पूर्णरूपसे इस मित्र धर्मका पालन किया था । किन्तु श्रीपुंज और श्रीधरके माता पिता बड़े ही दुराग्रही थे । दोनों भाइयोंकी यह प्रतिज्ञा उन्हें अच्छी न लगी, इसलिये उन्होंने दोनों भाइयोंको भोजन देना ही बन्द कर दिया। तीन दिन बीत गये किन्तु अपने पुत्रोंको निराहार देखकर भी उन्हें दया न आयो । इधर श्रीपुंज और श्रीधर इस बातपर डटे हुए थे, कि प्राण भले ही चला जाय, किन्तु इस : बार यह प्रतिज्ञा भंग न करेंगे। तीसरे दिन रात्रिको जब यह बात भद्रकको मालूम हुई, तब उसने इस प्रतिज्ञाकी महिमा बढानेके लिये राजाके पेटमें भयंकर पीड़ा उत्पन्न कर दी । ज्यों ज्यों वैद्य उसका उपचार करते थे, त्यों त्यों पोड़ा पढ़ती जाती थी । अन्तमें मन्त्रो किंकर्तव्य विमूढ़ हो गये और नगर में हाहाकार मच गया। इसी समय आकाशवाणी हुई कि "राजाके पेटकी यह वेदना किसी तरह आराम नहीं हो सकती ।
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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