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________________ * तृतीय सर्ग * २१६ भोजन करानेके बाद वस्त्राभूषण दे विदा किया । इन लोगोंमें उसे अपने भाई न दिखाई दिये। दूसरे दिन उसने सब महाजनोंको भोजन कराया, किन्तु उनमें भी भाइयोंका कोई पता न चला। तीसरे दिन उसने नगरके समस्त वस्त्र-व्यवसाइयोंको निमिन्त्रत किया, किन्तु उनमें भी कोई भाई न मिला। चौथे दिन उसने जौहरियोंको निमन्त्रित किया। जौहरियोंमें वस्त्राभूषणसे सज्जित हो सर्व प्रथम उसका भाई धनमित्र ही आता हुआ दिखायी दिया । धनदेवने प्रेम और उत्कंठा पूर्वक उससे भेट की और उसे एकान्तमें बुलाकर पिताका वह पत्र दिखाया। पत्र पढ़कर धनमित्रको बड़ा आनन्द हुआ। उसने कहा-“मुझे पिताजीको आज्ञा अङ्गीकार है। चलो, हमलोग शीघ्रही वहां चलकर उन्हें प्रणाम करें। इसके बाद सब जौहरियोंको भक्ति पूर्वक भोजन करा उनको विदा किया। धनदेवने धनमित्रसे धनपालका भी पता पूछा किन्तु उसके सम्बन्धमें वह कुछ न बता सका अतवए पाचवें दिन धनदेवने नगरके समस्त मजूरोंको बुलाकर भोजन कराया। मजूरोंके समुदायमें दुःखी दरिद्र और दुर्बल धनपाल भो दिखायी दिया। धनदेवने उसे गले लगाकर पूछा-“भाई ! तू ऐसा क्यों दिखायी देता है ? तेरी ऐसी अवस्था क्यों हो रही है ? तेरा सारा धन कहां गया ?" धनपालने कहा-“मैं एक वेश्याके फेर में पड़ गया इसलिये उसोमें मेरा सारा धन स्वाहा हो गया और मैं दरिद्री बन गया। यह सब कुछ मेरे प्रमादका हो परिणाम है।" यह सुनकर धनदेवने कहा-“हे बन्धु! तुने प्रमादमें पड़कर यह बहुत हा
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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