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________________ १४८ * पार्श्वनाथ चरित्र ___ अर्थात्-“पंथके समान जरा नहीं है, दारिदके समान पराभव नहीं है, मरणके समान भय नहीं है और क्षुधाके समान घेदना नहीं है।” इसपर किसीने यह भी कहा है कि बाल-जीव जो सुकृतसे रहित होते हैं वही मृत्युसे डरते हैं, पुण्यशाली पुरुष तो मृत्युको अपना एक प्रियतम अतिथि मानते हैं।” - इस प्रकार मृत्युसे भयभीत होकर महाबल सोचने लगा कि व्यर्थ ही मुझे यहां क्यों रहना चाहिये ? मैं यहांसे कहीं दूर हो क्यों न चला जाऊं, जिससे वटवृक्षकी छाया भी मुझपर न पड़ सके । यदि मैं संन्यास ग्रहण कर सब अनर्थों को दूर करनेके लिये तप करूं तो और भी अच्छा है।" इस प्रकार विचारकर वह एक नदीके किनारे गया और वहां एक तापसके निकट तापसी दीक्षा लेकर तप करने लगा। कुछ दिनोंके बाद गुरुका शरीरान्त हो गया, अतएव वह उसीके मठमें रहकर तीव्र अज्ञान तप करने लगा। ऐसा करते करते अनेक वर्ष व्यतीत हो गये। ___ कुछ दिनोंके बाद किसो चोरने एक दिन राजाके यहां चोरी की और वहांसे रत्नोंकी पेटी लेकर भगा। संयोगवश सिपाहियोने उसे देख लिया अतएव उन्होंने उसका पीछा पकड़ा। चोर इधर उधर अनेक स्थानोंमें भागता फिरा, किन्तु जब किसी प्रकार उसकी जान न बची तब वह उस उपवनमें घुसा जिसमें महा. बलका मठ था और वहां महाबलको ध्यानस्थ देख, उसीके निकट वह रत्न मञ्जूषा छोड़ वहांसे चलता बना। महाबलका ध्यान भंग होनेपर जब उसने अपने निकट रत्न मञ्जूषा पड़ी हुई देखी,
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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