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________________ १४२ * पार्श्वनाथ चरित्र * बड़ाही आश्चर्य होता । एक बार कुछ लोगोंने कौतुहल वश उससे पूछा - "भगवन् ! आपने यह महाविद्या कहां सीखी थी ?” संन्यासी ने अपनी महिमा बढ़ानेके उद्देशसे सत्य बातको छिपाते हुए कहा - " यह किसी विद्या या गुरुका प्रभाव नहीं है । यह तो मेरे तपका प्रभाव है-तपसे ही मैंने अपने वस्त्रोंको आकाशमें निराधार रखने की शक्ति प्राप्त की है ।" इस प्रकार संन्यासीने असत्य भाषण किया, किन्तु इसका फल भी उसे उसो क्षण हाथो हाथ मिल गया । बात यह हुई कि उसके वस्त्र जो आका- शमें निराधार अवस्थामें सूख रहे थे, वे उसके मुखसे असत्य वचन निकलते ही नीचे आ गिरे और उसकी विद्या भी सदाके लिये नष्ट हो गयी । हे भव्य जनो ! इस प्रकार मृषावादसे विद्या भी अविद्याके रूपमें परिणत हो जाती है, इसलिये अत्मकल्याणकी इच्छा रखनेवालोंको उसका सर्वथा त्याग ही करना चाहिये । अब हम लोग तीसरे अणुव्रत अदत्तादान विरमणके सम्बन्ध में विचार करेंगे । अदन्तादान विग्मणके भी पांच अतिचार वर्ज - नीय हैं। वे पांच अतिचार यह हैं – (१) चोरको अनुमति देना (२) चोरीका माल लेना (३) राजाकी आशाका उल्लंघन करना (४) चीजों में मिलावट करके बेचना और (५) तौल नापमें धोखा देना । पड़ा हुआ, भूला हुआ, खोया हुआ, छूटा हुआ और रखा हुआ पर धन अदत्त कहलाता है । सुज्ञ पुरुषोंको यह कदापि न लेना चाहिये ! जो अदत्त वस्तुको ग्रहण नहीं करता उसीको 'सिद्धि चाहती है और उसीको वरण करती है । कीत्ति उसकी
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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