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________________ * द्वितीय सर्ग * १३७ भेद किसी तरह खुल न जाय इसलिये उसने उस वेदिकाके बनाने वाले शिल्पीको भी मरवा डाला। इसके बाद वह उस वेदिकापर सिंहासन स्थापित कराकर उसपर बैठने लगा। लोगोंको वह वेदिका दिखायी न देती थी, इसलिये सब लोग यही समझते थे कि राजाका सिंहासन सत्यके प्रभावसे जमीनसे कुछ ऊंचा उठा रहता है । इसके अतिरिक्त सत्यके प्रभावसे देवता भी वसुराजा को सहायता करने लगे। इससे दिग दिगन्तरमें उसका यश छा गया और अनेक नृपतियोंने भयभीत होकर अधीनता स्वीकार कर ला । वसुराजाकी सर्वत्र जय होने लगो। एक दिन नारद अपने मित्र एवम् गुरुभाई पर्वतको मिलने आया। उस समय पर्वत अपने शिष्योंको “अजैर्यष्टव्यं” इस पदका अर्थ सिखा रहा था। उसने अपने शिष्योंको बतलाया कि-"अज अर्थात् बकरेसे यजन करना चाहिये ” पर्वतके मुँहसे अजैयष्टव्यं पदका यह अर्थ सुनकर नारदने कहा-“हे बन्धु ! भ्रांतिवश तू असत्य क्यों बोलता है ? गुरुजीने तो हम लोगोंको यह सिखाया था कि अज अर्थात् न उगने योग्य तीन वर्षके पुराने व्रीहि । इन्हींसे यज्ञ करनेको उन्होंने बतलाया था। उन्होंने “अज" शब्दको व्याख्या इस प्रकार की थी-"न जायन्ते इत्यजा" अर्थात् "जो न उगे वही अज" क्या यह व्याख्या तू भूल गया ?" पर्वतने कहा-"नहीं नारद! पिताजीने ऐसा न कहा था । उन्होंने अजका अर्थ बकरा हो बतलाया था।” नारदने कहा-"नहीं इसमें कोई सन्देह नहीं कि शब्दोंके अनेक अर्थ होते हैं, किन्तु गुरुजी बड़े
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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