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________________ * द्वितीय सर्ग * १३१ नदी जल पूर्ण होकर बहती है, अग्नि शान्त हो जाती है, सिंह, हाथी और महासर्प भी उस सत्यबादीकी खींचोई रेखाको उल्लंघन करनेका साहस नहीं करते । विष, भूत या महा आयुधका भी उसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और देव भी सत्यवादोसे दूर ही रहनेको पेष्टा करता है। जो सत्य वचन बोलता है, उसके लिये अग्नि जलके समान, समुद्र स्थलके समान, शत्रु मित्रके समान, देवता नौकर के समान, जंगल नगरके समान, पर्वत गृहके समान, सर्प पुष्पमालाके समान, सिंह मृगके समान, पाताल बिलके समान, अस्त्र कमल-दलके समान, विकराल हाथो शृगालके समान, विष अमृतके समान और विषम भी अनुकूल हो जाता है । इसके अतिरिक्त मन्मनत्व, काहलत्व, मूकत्व और मुखरोग प्रभृति असत्यके फल देखकर भी कन्या अलोक आदि असत्योंका त्याग करना चाहिये । कन्या, गाय, और भूमि विषयक असत्य, धरोहरके सम्बन्धमें विश्वासघात और झूठी गवाही - यह पांच स्थूल असत्य कहलाते हैं। देखो, नारद और पर्वत नामक दो मित्रोंके सम्बन्धमें गुरु पत्नीकी अभ्यर्थमाके कारण लेशमात्र असत्य बोलनेसे भी वसुराजाकी बड़ी दुर्गति हुई । झूठो गवाही देनेसे ब्रह्मा अर्चा रहित हुए और कितने हो देवताओंका नाश हुआ । सत्यकी परीक्षामें उत्तीर्ण होनेपर मनुष्यकी साक्षात् हरिकी तरह पूजा हो सकता हैं । इस व्रत के सम्बन्धमें वसुराजकी कथा बहुत ही प्रसिद्ध है । वह कथा इस प्रकार है : -: •
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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