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________________ १०४ * पाश्वनाथ चरित्र * यक्षिणीकी बात सुन कुमारको बड़ाही आश्चर्य हुआ। उसने कहा-“हे देवी! मैं मनुष्य और तुम देवाङ्गना हो। मेरा और तुम्हारा इस प्रकार मिलन हो ही कैसे सकता है । इसके अतिरिक्त यह भी बात है कि विषय-सुख अन्तमें अत्यन्त दुःखदायी होता है। विषयी जीव नरक और तिर्यंचगतिमें परिभ्रमण करता है। सिद्धान्तमें भी कहा है कि विषय रूपी विष हलाहलसे भी अधिक भयंकर है। इसका पान करनेपर प्राणियोंकी बारंबार मृत्यु होती है। विषय विषके कारण अन्न भी विशूचिका रूप हो जाता है। काम शल्य है, एक प्रकारका विष है और वह आशी विषके समान है। इसलिये इसका तो त्याग ही करना उचित है। इसके त्याग करनेसे तिर्यंच जीवको भी स्वर्गकी प्राप्ति होती है। अतः मैं तुम्हें अपनी माता समझता हूँ। तुम भी मुझे अपना पुत्र मानकर इसके लिये क्षमा करो। कुमारने यह कहते हुए यक्षिणोके दोनों पैर पकड़ लिये। __कुमारकी बातोंसे यक्षिणीके हृदयपर यथेष्ट प्रभाव पड़ा था, इस लिये उसने भी अपना दुराग्रह छोड़ दिया। साथ ही उसने प्रसन्न होकर कुमारसे कहा--"तुन्हारी बातें सुनकर मुझे अत्यन्त आनन्द हुआ है, यदि तुम्हें किसी वस्तुकी आवश्यकता हो तो मांग सकते हो।” कुमारने हाथ जोड़कर कहा-“देवि ! तुम्हारी दयासे मुझे किसी बातकी कमी नहीं है। किन्तु यदि तुम कुछ देना ही चाहती हो, तो मुझे उत्तम आशीर्वाद दे सकती हो। माताका आशीर्वाद ही पुत्रके लिये यथेष्ट है। यक्षिणीने प्रसन्न
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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