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________________ .प्रथम सग उठ बैठा। उसने उस नलीको हृदयमें लगा लिया। उसके रोते चेहरेपर हँसी दिखायी देने लगी। अब उसे अपने भाईको भी पहचानने में कोई कठिनाई न पड़ी। दोनों भाई बड़े प्रेमसे मिले, देवदत्तने सर्वप्रथम वह नलो मिलनेका वृत्तान्त कह सुनाया। फिर दोनों जन इधर उधरकी बातें करते हुए घर आये। घरमें स्नान और भोजनादिसे निवृत्त होनेपर फिर दोनों भाइयोंमें बातें होने लगीं। धनदत्तने पूछा, “देवदत्त! तुमने इतने दिनोंमें क्या उपार्जन किया ?" देवदत्तने कहा, "मैं धन नहीं इकट्ठा कर सका, किन्तु यथाशक्ति धर्मानुष्ठान करने में मैंने कोई कसर नहीं रखी। मैं इसे ही अपना जीवन सर्वस्व समझता हूँ।" धनदत्तने कहा,--"तुमने कुछ न किया।देखो मैंने इतने दिनों में कितना धन पैदा किया !" देवदत्तने कहा,-"भाई ! क्षमा कीजियेगा, कहना तो न चाहिये पर कहना पड़ता है कि आपने जो कुछ उपार्जन किया था वह सब नष्ट हो गया था, किन्तु मेरे पुण्य बलसे वह फिर आपको मिल सका है।" देवदत्तकी यह बात सुन धनदत्तको ज्ञान हुआ और वह भी देवदत्तकी तरह जीवन बिताने लगा। इससे दोनों भाई सुखी हुए और दूसरे जन्ममें उन्हें मोक्षकी प्राप्ति हुई। हे प्राणियो! जिस प्रकार एक कौड़ीके पीछे धनदत्तने अपनी सारी कमाई खो दी था, उसी तरह भोग-विलासके पीछे मनुष्य
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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