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________________ प्रथम पर्व आदिनाथ-चरित्र गया। मुनि को नमस्कार कर के और वहाँ से उठकर वह तत्काल अपने स्थान को गया। वहाँ पहुँचते ही उसने अपने पुत्र को राजगद्दी पर बिठा कर सुबुद्धि से कहा कि, मैं दीक्षा ग्रहण करूंगा। इसलिए मेरी तरह ही मेरे पुत्र को भी तुम नित्य धर्मोपदेश देते रहना। सुबुद्धि ने कहा -'महाराज ! मैं भी आप के साथ वृत ग्रहण करूँगा और मेरी तरह मेरा पुत्र आप के पुत्र को धर्मोपदेश सुनावेगा।' इसके बाद राजा और सुवुद्धि मन्त्रीने कर्मरूपी पर्वत के भेदने में वज्र के समान व्रत ग्रहण किया और दीर्घकाल तक उसका पालन करके मोक्ष लाभ किया। हे राजन! तुम्हारे वंश में दूसरा एक दण्डक नाम का राजा हुआ है। उस राजा का शासन प्रचण्ड था और वह शत्रु ओं के लिए साक्षात् यमराज था। उसके मणिमाली नाम का एक प्रसिद्ध पुत्र था । वह अपने तेज से, सूर्य की तरह, दशों दिशाओं को प्रकाशित करताथा । दण्डक राजपुत्र, मित्र, स्त्री, रत्न सुवण और धन में अत्यन्त फंसा हुआ था। वह इन सबको अपने प्राणों से भी अधिक चाहता था। आयुष्य पूर्ण होने पर, आर्तध्यान में ही लगा रहनेवाला वह राजा, मरकर, अपने ही भण्डार में दुर्धर दखिये। मनुष्य-मात्र के देखने योग्य ग्रंथ है। उसमें ऐसे-ऐसे भावपूण २६ चित्र हैं जिनके देखने मात्र से अभिमानियों का मद ज्वर की तरह उतर जाता है, संसार स्वप्नवत प्रतीत होता है और विषय विषवत बरे लगने लगते हैं। पृष्ट-संख्या ४८० मुनहरी अतरों की रेशमी जिन्द-बधी पुस्तक का मूल्य ५) डाक-खर्च ।
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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