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________________ आदिनाथ चरित्र ४६६ प्रथम पर्व पक्षी भी धन्य है और जो आपके दर्शनोंसे वञ्चित हैं, वे स्वर्ग में रहते हुए भी अधन्य हैं । हे तीनों लोकके स्वामी ! जिनके हृदयमन्दिर में आपही अधिष्ठाता देवताकी भाँति निवास करते हैं, वे भव्य जीव श्रेष्ठसे भी श्रेष्ठ हैं। बस आपसे मेरी केवल यही एक प्रार्थना हैं, कि नगर - नगर और ग्राम ग्राम विहार करते हुए आप कदापि मेरे हृदयको नहीं त्यागे " इस प्रकार प्रभुकी स्तुति कर, पाँचों अङ्गो से पृथ्वीका स्पर्श करते हुए प्रणाम कर स्वर्गपति इन्द्र पूर्व और उत्तर दिशाओ के मध्यमें बैठे | प्रभु अष्टापद - पर्वत पर पधारे हैं, यह समाचार शीघ्रही शैल-रक्षक पुरुषोंने चक्रवर्तीसे जाकर कह सुनाया : क्योंकि वे इसी कामके लिये वहाँ रखे गये थे। भगवान के आगमनका समाचार सुननेवाले लोगोंको उदार चक्रवर्त्तीने साढ़े बारह करोड़ सुवर्ण दान किया । भला ऐसे अवसर पर वे जो न दे देते, कम ही था । फिर महाराजने सिंहासनसे उठकर उस दिशाकी ओर सात आठ कदम चलकर विनयके साथ प्रभुको प्रणाम किया और फिर सिंहासन पर बैठ कर इन्द्र जैसे देवताओंको बुलाते हैं, वैसेही प्रभुकी वन्दना करनेको जानेके लिये चक्रवर्ती ने अपने सैनिकों को बुलवाया, वेलासे समुद्रकी ऊँची तरङ्ग पंक्ति के समान भरत राजाकी आज्ञा से सम्पूर्ण राजा चारों ओरसे आकर एकत्रित हो गये । हाथी ऊँचे स्वरसे गर्जना करने लगे । घोड़े हिनहिनाने लगे । उनका इस प्रकार शब्द करना ऐसा मालूम होता था मानों वे अपने सवारोंको स्वामीके पास जानेके लिये
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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